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________________ तत्त्वार्थ सूत्र द्वितीय अध्याय औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिकौ च ॥ १ ॥ अर्थ - औपशमिक, क्षायिक, मिश्र ( क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक ये पाँचों ही भाव जीव के स्वतत्त्व है। द्वि-नवा-ष्टादशैकविंशति - त्रि भेदा यथाक्रमम् ॥२॥ अर्थ - औपशमिक आदि भावों के क्रमशः दो, नौ, अट्ठारह, इक्कीस तथा तीन, इस तरह कुल ५३ भेद होते हैं । सम्यक्त्व चारित्रे ॥३॥ अर्थ औपशमिक भाव के दो भेद होते हैं औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र | ज्ञान-दर्शन-दान - लाभ - भोगोपभोग-वीर्याणि च ॥४॥ अर्थ - ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ये सात तथा 'च' शब्द से संकेतिक पूर्व सूत्र में उक्त सम्यक्त्व और चारित्र ये नौ क्षायिक भाव हैं । - ज्ञान - ऽज्ञान- दर्शन, दानादि - लब्धयश्चतुस्त्रि त्रिपंच भेदाः यथाक्रमं सम्यक्त्व - चारित्र - संयमासंयमाश्च ॥५॥ अर्थ - क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं- चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम । गति - कषाय-लिंग- मिथ्यादर्शना - ऽज्ञाना- संयता
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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