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________________ कौन - सी वस्तु है ? ऐसे ज्ञानदाता गुरु के चरणों में तो अपना सर्वस्व जीवन समर्पित करने योग्य है । जैसे उस पुलिंद भील ने अपनी आँखें महादेव को समर्पित कर दी थी ॥ २६५ ॥ इसी प्रकार देवाधिदेव व गुरुदेव के प्रति सच्चे भक्तिभाव रखने चाहिए ॥ २६५ ॥ सिंहासणे निसन्नं, सोवागं सेणिओ नरवरिंदो । विज्जं मग्गइ पयओ, इअ साहूजणस्स सुयविणओ ॥ २६६॥ शब्दार्थ : मानव श्रेष्ठ श्रेणिक राजा ने स्वयं सिंहासन पर चांडाल को बिठाकर करबद्ध होकर नमस्कार करके उससे विद्या की याचना की थी, इसी तरह श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिए मुनिवरों को भी गुरु के प्रति विनय करना आवश्यक है ॥२६६॥ विज्जाए कासवसंतियाए, दगसूयरो सिरिं पत्तो । पडिओ मुसं वयंतो, सुअनिण्हवणा इअ अपत्था ॥ २६७॥ शब्दार्थ : रातदिन शरीर को बार-बार पानी में ही डुबोए रखने वाले (अतिस्नानी) किसी त्रिदण्डी संन्यासी ने किसी नापित से विद्या सीखी । विद्या के प्रभाव से उसकी सर्वत्र पूजाप्रतिष्ठा होने लगी । परंतु किसी के द्वारा ' यह विद्या किससे सीखी?' यों पूछे जाने पर जब उसने अपने 'विद्यागुरु' का नाम छिपाया तो उसकी विद्या नष्ट हो गयी ॥ २६७॥ सयलंमि वि जीयलोए, तेण इहं घोसियो अमाघाओ । इक्कं पि जो दुहत्तं, सत्तं बोहेइ जिणवयणे ॥ २६८ ॥ उपदेशमाला ९७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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