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________________ शब्दार्थ : देवलोक रूपी उच्च स्थान, मोक्षगति रूपी उच्चतर स्थान मनुष्यगति रूपी मध्यम स्थान, तिर्यंचगति रूपी हीन और नरकगति रूपी हीनतर स्थान में से जिस जीव को जिस स्थान में जाना हो, वह वैसी ही चेष्टा करता है ॥२६२॥ जस्स गुरुमि परिभवो, साहुसु अणायरो खमा तुच्छा । धम्मे य अणहिलासो, अहिलासो दुग्गईए उ ॥२६३॥ शब्दार्थ : जिसके मन में गुरु के प्रति अपमान की वृत्ति है, साधुओं के प्रति अनादर बुद्धि है, जो बात-बात में रोष से उबल पड़ता है, जिसकी शांति आदि दश प्रकार के श्रमण-धर्म में बिल्कुल रूचि नहीं है, ऐसी अभिलाषा दुर्गति में ले जाने वाली है ॥२६३॥ सारीरमाणसाणं, दुक्खसहस्सवसण्णाण परिभीया । नाणंकुसेण मुणिणो, रागगइंदं निरंभंति ॥२६४॥ शब्दार्थ : शारीरिक और मानसिक हजारों दुःखों के आ पड़ने से डरे हुए या डरने वाले मुनिवर ज्ञानरूपी अंकुश से राग रूपी हाथी को वश में कर लेते हैं ॥२६४॥ सुग्गइमग्गपईवं, नाणं दितस्स हुज्ज किमदेयं ? । जह तं पुलिंदएणं, दिन्नं सिवगस्स नियगच्छिं ॥२६५॥ शब्दार्थ : मोक्ष रूपी सद्गति के मार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान जिन ज्ञानी गुरुदेव (धर्माचार्य) ने ज्ञान रूपी नेत्र दिये हैं, ऐसे उपकारी गुरु को नहीं देने योग्य उपदेशमाला
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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