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________________ शब्दार्थ : जो व्यक्ति इस संसार में जन्म-मरण के दुःख से पीड़ित एक भी प्राणी को श्रीजिनवचन का बोध कराता है, वह इस १४ रज्जू प्रमाण लोक में अमारि पटह से घोषणा कराने सरीखा लाभ प्राप्त करता है; क्योंकि एक भी व्यक्ति जिनशासन को भलीभांति प्राप्त कर लेने पर अनंतजन्म-मरण के चक्र से बच जाता है ॥२६८॥ समत्तदायगाणं दुप्पडियारं, भवेसु बहुएसु । सव्वगुणमेलियाहि वि, उवयारसहस्सकोडीहिं ॥२६९॥ शब्दार्थ : सम्यक्त्व - (बोधिबीज) प्रदाता गुरुजनों के उपकार का बदला चुकाना अनेक जन्मों में भी दुःशक्य है । क्योंकि अनेक भवों में भी गुरुदेव के करोड़ गुना उपकारों से उपकृत व्यक्ति सारे गुणों के द्वारा दो-तीन-चार गुना प्रत्युपकार मिलाकर भी अनंतगुना उपकार तक नहीं पहुंच सकता ॥२६९॥ इसीलिए सम्यक्त्वदाता धर्मगुरु का उपकार दुनिया में सर्वोत्कृष्ट है । उनकी भक्ति करनी चाहिए । अब सम्यक्त्व का फल बताते हैं - सम्मत्तंमि उ लद्धे, ठड्याइं नरयतिरियदाराई । दिव्वाणि माणुसाणि य, मोक्खसुहाइं सहीणाई ॥२७०॥ शब्दार्थ : सम्यक्त्व प्राप्त होने पर उस जीव के नरक और तिर्यंच गति के बहुत-से द्वार बंद हो जाते हैं। यानी इन उपदेशमाला
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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