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________________ साहू कंतारमहाभएसु, अवि जणवए वि मुइयम्मि । अवि ते सरीरपीडं, सहति न लहंति य विरुद्धं ॥४१॥ ___शब्दार्थ : साधु महाभयंकर घोर जंगलों में भी सुखसामग्री से समृद्ध जनपद (प्रदेश) की तरह निरुपद्रव समझकर सर्वत्र कष्टसहिष्णु होकर शारीरिक पीड़ा सहन करते हैं; किन्तु साधुधर्म के नियमों के विरुद्ध आहारादि ग्रहण नहीं करते ॥४१॥ जंतेहिं पीलियावी हु, खंदगसीसा न चेव परिकुविया । विइयपरमत्थसारा, खमंति जे पंडिया हुंति ॥४२॥ शब्दार्थ : यंत्र (घाणी) में पीलने पर भी स्कन्दकाचार्य के शिष्य कुपित नहीं हुए, क्योंकि वे परमार्थ के तत्त्व को जान गये थे । जो पण्डित होते हैं, वे स्वयं कष्ट सहते हैं, किन्तु अपकारी को भी क्षमा कर देते हैं ॥४२॥ जिणवयण-सुइ-सकण्णा, अवगयसंसारघोरपेयाला । बालाण खमंति जई, जइत्ति किं एत्थ अच्छेरं ? ॥४३॥ शब्दार्थ : जिनेन्द्र भगवान् के वचन सुनने से जिसके कान 'सुकर्ण' हो गये हैं, और जिन्होंने घोर संसार के असार स्वरूप को जान लिया है, ऐसे स्वरूपज्ञ व्यक्ति यदि दुष्टचेष्टा वाले बालजीवों को क्षमा कर देते हैं तो इसमें कौन सी आश्चर्य की बात है ? ॥४३॥ उपदेशमाला १४
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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