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________________ न कुलं एत्थ पहाणं, हरिएसबलस्स किं कुलं आसि ? | आकंपिया तवेणं, सुरा वि जं पज्जुवासंति ॥४४॥ शब्दार्था : इस धर्म में कुल की प्रधानता नहीं है । क्योंकि मुनि हरिकेशबल का कौन-सा कुल था ? फिर भी उनके तप से आकम्पित ( प्रभावित) होकर देव भी उनकी सेवा करते थे ॥४४॥ देवो नेरइओ त्ति य, कीडपयंगु त्ति माणुसो एसो । रुवस्सी य विरुवो, सुहभागी दुक्खभागी अ ॥ ४५ ॥ राउ ति य दमगुत्ति य, एस सपागु त्ति एस वेयविऊ । सामी दासो पुज्जो, खलो त्ति अधणो धणवइति ॥ ४६ ॥ न वि इत्थ कोऽवि नियमो, सकम्मविणिविट्ठसरिसकयचिट्ठो | अन्नुन्न रुववेसो, नडु व्व परियत्तए जीवो ॥४७॥ शब्दार्थ : यह जीव अपने-अपने कर्मवश देव बना, नारक बना, कीड़ा और पतंग आदि अनेक प्रकार का तिर्यंच बना, मनुष्य का रूप धारण किया, कभी रूपवान बना, कभी कुरूप बना, कभी सुखभागी बना और कभी दुःखभागी, कभी राजा बना, कभी रंक बना, कभी चाण्डाल बना और कभी वेदवेत्ता ब्राह्मण बना, कभी स्वामी, कभी दास, कभी पूज्य (उपाध्याय आदि), कभी दुर्जन बना, कभी निर्धन और कभी धनवान । संसार में ऐसा कोई नियम नहीं है कि उच्चकुल में जन्मा हुआ भविष्य में उच्चगति, योनि या गोत्र । उपदेशमाला १५
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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