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________________ भूमिका जायेगा। महात्मा गांधी के साथ बहिनों के पत्र-व्यवहार के प्रतेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वे बड़े प्रभावक है। बहिनों के साथ ब्रह्मचर्य सम्बन्धी प्रश्नों पर भी कैसे खुलकर बात-चीत होती थी, उसका नमूना कुछ पत्रों के निम्न उद्धरणों से पाठकों के सामने पा सकेगा। "रक्तपित मादि रोग जिसके हुए हैं, उसे जबरदस्ती से नपुंसक करने की प्रथा को पसन्द करने में अनेक हकावट पाती है। इससे भनेक प्रकार के अनर्थ होने की संभावना है। पुन: किसी भी रोग को असाध्य मान लेना भी उचित नहीं। संयम का प्रचार कर जितना फल प्राप्त किया जा सके, उतने से संतुष्ट रहना, इसीमें मुझे सही-सलामत लगती है । पद-पद पर मुझे कायरता की गंध पाती है। कायर कातने वाला सूते में पड़ी हुई गुत्थी को चाकू से निकालेगा। कुशल कातनेवाला धीरज से और कला से उसे सुलझायेगा और मूते को प्रविछिन्न रखेगा। ऐसा ही कुछ अहिंसक मनुष्य प्रसाध्य मानी जानेवाली व्याधि से पीड़ित लोगों के लिए ढूंढेगा (२-६-३५)." "महाराष्ट्र के पत्र की बात बिल्कुल सत्य है। पर उसकी कल्पना बिल्कुल प्रसत्य है। लड़कियों के कंधों पर हाथ रखकर मैं अपनी विषय-वृत्ति का पोषण करता था, ऐसा इस लिखनेवाले के पत्र का प्रथं किया जा सकता है। इसका कथन तो जुदा ही था। पर बात यह है कि, लड़कियों के कंधों पर हाथ रखना बन्द किया उसके साथ मेरी विषय-वासना का कोई सम्बन्ध नहीं। "इसकी उत्पत्ति केवल निकम्मे पड़े रहकर खाते रहने में थी। मुझं स्राव हुआ, पर मैं जाग्रत था और मन अंकुश में था। कारण समझ गया और तब से डाक्टरी पाराम लेना बन्द कर दिया। मौर ब तो मेरी जो स्थिति थी उससे अधिक सरस की कल्पना की जा सके तो सरस है। इस विषय में तुझे विशेष पूछना हो तो पूछ सकती हो, क्योंकि तुम से मैंने बड़ी प्राशाएं रखी है । अतः तू मुझसे मेरे विषय में जो जानना हो वह जान ले। "जननेन्द्रिय विषय के लिए है ही नहीं, यदि यह स्पष्ट हो जाय तो समूची दृष्टि ही न पलट जाय ? जैसे कोई रास्ते में क्षय रोगी के खंखार को मणि समझकर उसे हाथ में लेने के लिए उत्सुक होता है, पर खंखार है, ऐसा समझते ही वह शान्त हो जाता है। उसी प्रकार जननेन्द्रिय के उपयोग के विषय में हैं। बात यह है कि यह मान्यता ऐसो दृढ़ और स्पष्ट कभी थी नहीं। और अब तो नया शिक्षण इस मत की निंदा करता है, मर्यादित विषय-सेवन को सद्गुण मानने को कहता है, और उसकी मावश्यकता है, ऐसा सुझाता है। इन सब पर विचार कर देखना (६-५-३६) ।" जब इस बहिन ने महात्मा गांधी से उन्हें स्वप्न होते हैं या नहीं, यह जानने की इच्छा की तो उन्होंने लिखा: . . "तूने प्रश्न उचित पूछा है। अब भी और अधिक स्पष्टता से पूछ सकती है। मुझे (स्वप्न में) स्खलन तो हमेशा हुए हैं। दक्षिण अफ्रिका में वर्षों का अन्तर पड़ा होगा, मुझे पूरा याद नहीं। यहां महीने के अन्दर होता है। स्खलन होने का उल्लेख मैंने अपने दो-चार लेखों में किया है। यदि मेरा ब्रह्मचर्य स्खलन-रहित होता तो आज मैं जगत के सम्मुख बहुत अधिक वस्तु रख सकता। पर जिसे १५ वर्ष की उम्र से लेकर ३० वर्ष की उम्र तक, फिर चाहें अपनी स्त्री के विषय में ही रहा हो, विषयभोग विया है, वह ब्रह्मचारी होकर वीर्य को सर्वथा रोक सके, यह लगभग अशक्य जैसा मालूम होता है। जिसकी संग्राहक शक्ति १५ वर्ष तक दिन प्रतिदिन क्षीण होती रही है, वह एकाएक इस शक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । उसका मन और शरीर दोनों निर्बल हो चुके होते हैं। अत: अपने स्वयं को मैं बहुत अपूर्ण ब्रह्मचारी मानता हूं। पर जिस तरह जहाँ वृत नहीं होता वहाँ एरंड ही प्रधान होता है, वही मेरी स्थिति है। यह मेरी अपूर्णता संसार को मालूम है।" ... रूपणता में जो अनुभव हुमा उसको विशेष रूप से जानने को जिज्ञासा का उत्तर उन्होंने उपर्युक्त पत्र में ही इस प्रकार दिया: "जिस अनुभव ने मुझं वम्बई में तंग किया, वह तो विचित्र और दुःखदायी था। मेरे सारे स्खलन स्वप्नों में रहे, उन्होंने मुझे सताया नहीं। उन्हें मैं भूल सका हूं। पर वम्बई का अनुभव तो जाग्रत स्थिति में था। इस इच्छा को पूरी करने की तो मूल में ही वृत्ति न थी, मूढ़ता जरा भी न थी। शरीर पर काबू पूरा था। पर प्रयत्न होने पर भी इन्द्रिय जागृत रही, यह अनुभव नया था और शोभा न दे, ऐसा था। उसका कारण तो मैंने बताया ही है। यह कारण दूर होने पर जाति बंद हुई। अर्थात् जाग्रत अवस्था में बन्द।" ___ इसके बाद पत्र में अपनी शुद्धि और ब्रह्मचर्य की साध्यता के विषय पर एक सुन्दर प्रवचन-सा ही है। १-बापुना पत्रो-५ कु. प्रेमाबहेन कंटकने पृ० ०३५ २-इसका सम्बन्ध बीमारी के समय की उस बेचैनीपूर्ण घटना से है जिसका उल्लेख पीछे पृ०६८ पर आया है। ३-यापुना पन्नो-५ कु. प्रेमावहेन कंटकने पृ० २३६-७ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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