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________________ शील की नव वाड़ इस मागमिक प्राज्ञा का कारण संकुचित दृष्टि नहीं, परंतु पुरुष-स्त्री के स्वभाव का मनोवैज्ञानिक ज्ञान है । शानियों का ज्ञान कहता स्त्री-पुरुष एक दूसरे के लिए 'पंकभूमाउ' भूत-कादे के समान हैं। स्त्री का शरीर पुरुष के लिए और पुरुष का शरीर स्त्री के लिा प्रकार भय का स्थान है जिस प्रकार कुक्कुट के बच्चे के लिए बिल्ली। जिस तरह अग्नि के पास रखा हुमा लाख का घड़ा शीघ्र तप्त हो नाश को प्राप्त होता है, वैसे ही संसक्त सहवासवाले ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुष का संयम शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है। बाड़ में पाए हुए बिल्ली और चूहा, बिल्ली और कुक्कुट आदि के जो उदाहरण हैं, वे प्रागमोक्त ही हैं। ये स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति समान रूप से लागू पड़ते हैं। इनका भावार्थ है-ब्रह्मचारिणी स्त्री के लिए पुरुष का सहवास बुरा है और ब्रह्मचारी पुरुष के लिए स्त्री का संगम ब्रह्मचारिणी अपने को चूहे, मोर और कुक्कुट के बच्चे के स्थान में समझे और पुरुष को बिल्ली के स्थान में । इसी तरह ब्रह्मचारी स्त्री को विला के स्थान में समझे और अपने को चूहे, मोर और कुक्कुट के स्थान में । सहवास से मूर्ख ब्रह्मचारी मनोहर स्त्री के वश में होता है और मुर्ख बना चारिणी पुरुष के वश में हो जाती है। ज्ञानियों का अनुभव है कि ससंक्तवास 'लाख और अग्नि', 'दूध और विष' की तरह द्रावक और पार ____ कहा है : "माता, बहन, या पुत्री किसी के साथ एकान्त में न बैठना चाहिए। क्योंकि इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान होता है, वह विद्वानों को भी अपनी ओर खींच लेता है।" इसी तरह जैन आगमों में कहा है "जो मन, वचन और काय से गुप्त है और जिसे विभूपित देवाङ्गनाएं मी काम-विह्वल नहीं कर सकतीं, ऐसे मुनि के लिए भी एकान्त-वास ही हितकर और प्रशस्त है। जिसके हाथ, पैर एवं कान कटे हुए हैं तथा जोली वर्ष की वृद्धा है, ऐसी स्त्री की संगति का भी ब्रह्मचारी वर्जन करे" ये बातें ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी दोनों के लिए लागू होती हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यह कोई शाश्वत नियम नहीं है । अन्यथा मुनि स्थूलिभद्र कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास कैसे कर सकते। उन्होंने गुरु की आज्ञा ले कोशा गणिका के घर चातुर्मास व्यतीत किया । भोग के सारे साधन थे। साधु बनने के पूर्व वे उसी वेश्या के साथ बारह वर्ष तक भोगासक्त रहे। अत: वह सुपरिचित थी। षट्रसयुक्त भोजन, सुन्दर महल, सारा श्रृंगार उपस्थित था। ऋतु अनुकूल थी। कोशा की ओर से बड़ा अनुनय-विनय और भोग-सेवन के लिए आमन्त्रण था। ऐसी स्थिति में भी वेश्या के साथ एक मकान में रहने पर भी स्थलिभद्र का कुछ नहीं बिगड़ा । 'मनचंगा तो कठौती में गङ्गा।' स्थलिभद्र की कथा पु० ८२ पर दी हुई है। स्थूलिभद्र की यह जीवन-घटना इस बात के लिए प्रमाण है कि ब्रह्मचारी को अपने व्रत में कितना दृढ़ होना चाहिए । पर इस बात का प्रमाण नहीं कि मोह-जनक स्थानों में रहना ब्रह्मचारी के लिए खतरे का घर नहीं और न इस बात का सबूत है कि ब्रह्मचारी को ऐसे स्थानों में रहने की भी आज्ञा है । और न इससे यह फलित होता है कि ब्रह्मचारी को ऐसे स्थानों में रह कर ही अपने ब्रह्मचर्य की साधना करनी चाहिए अथवा ब्रह्मचारी होने का सबूत पेश करना चाहिए। यह उदाहरण तो इस बोध के लिए है कि अनायास ऐसा विकट प्रसंग उपस्थित हो जाय, तो भी ब्रह्मचारी मोह-ग्रस्त होकर विचलित न हो। ऐसे सब संयोगों के अवसर पर भी वह असीम १-उत्तराध्ययन २.१७ २-पृ० १६ टि०६ ३-सूत्रकृताङ्ग ११४.१ : २७: जतुकुम्भे जोइउवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ। एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥ ४-पृ० १७ टि० १३ ५-पृ० १६ टि०८ ६-पृ० १० टि०८ ७- मनुस्मृति २.२१५ : मात्रा स्वना दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत्। बलवानिन्द्रियग्रामो, विद्वांसमपि कर्षति । Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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