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________________ भूमिका मनोबल का परिचय दे और कामराग को पूर्णरूप से जीते । जो एकान्त स्थान में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करता है उसमें कोई दोष नहीं, पर उसकी परीक्षा तय होती है जब वह मोह उत्पन्न करनेवाले संयोगों में प्रा फंसता है। ऐसे अयसर पर इन्द्रियों पर सम्पूर्ण संयम रखना ही ब्रह्मचारी की कसौटी है। ऐसे समय उसे स्थूलिभद्र की कथा याद कर अपने को उस पांच से भी सम्पूर्णतः निदाग रखना चाहिए।' तो पठियं तो गुणियं तो मुणियं तो अडओ अप्पा भावडिय पल्लिया मंतओवि, जइ न कुणइ अकजं ॥ -उसी का पढ़ना, गुनना, जानना और प्रात्म-स्वरूप का चिंतन करना प्रमाण है, जो प्रापत् में पड़ने पर भी प्रकार्य की ओर कदम नहीं बढ़ाता। जो ब्रह्मचारी मोह-जनक संसक्त स्थानों का वर्जन नहीं करता और जान बूझकर ऐसे स्थानों का प्रसंग करता है, उसकी गति वही होती है जो सिंहगुफावासी यति की हुई। स्थलिभद्र के गुरुभाई इस मुनि ने उनकी स्पर्धा से उसी कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास किया और काम-विह्वल हो भोग की प्रार्थना करने लगा। वेश्या कोशा, जो मुनि स्थलिभद्र के प्रयत्न से श्राविका हो चुकी थी, उसे प्रतिबोध न देती तो उनका पतन अन्तिम सीमा तक पहुंचे बिना नहीं रहता । ब्रह्मचारी कैसे स्थानों में रहे, इसका सम्यकबोध स्थलिभद्र की कथा में नहीं पर सिंहगुफावासी यति के प्रसंग से समझना चाहिए। _ब्रह्मचारी अपने मनोबल पर खूब भरोसा न करे, बल्कि वह विनम्र रहे, अहंकार न रखे। वह निरहंकार-भाव से अपने को अनुकूल वास में रखे। इस बाड़ से सम्बन्धित कुलबालुड़ा की कथा इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि जो ब्रह्मचारी स्त्री के साथ एकांत-सेवन करने लगता है तथा उसकी संगति, सहवास और स्पर्श का निवारण नहीं करता, उसका पतन कितना शीघ्र होता है। कोणिक की मागधिका गणिका ने स्वस्थ न हो तब तक रुग्ण मुनि कुलबालड़ा की सेवा करने की छूट उनसे चाही। मुनि कुलबालड़ा ने उसको सेवा के लिए सहवास की यह छूट दी। अन्त में यह सहवास मुनि कुलबालुड़ा के पतन का कारण हुमा। श्रीमद् भागवत में कहा है : धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् । तेजीयसां न दोषाय वह्नः सर्वभुजो यथा ॥ मैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः । विनश्यत्याचरन् मौढ्याद् यथाऽरुद्रोऽधिज विपम् ॥ ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित् । तेषां यत्स्ववचोयुक्त बुद्धिमांस्तत्समाचरेत् ॥ १०॥३३३३०-३२ -कभी कभी महान शक्ति संपन्न व्यक्ति साहस के साथ नियमों का उल्लंघन (व्यतिक्रम). करते हुये देखे गये हैं। परन्तु जिस प्रकार सर्वभुक्-संपूर्ण वस्तुओं को जलानेवाली-अग्नि को दोष नहीं होता, उसी प्रकार नियमों के ये व्यतिक्रम तेजस्वियों के लिये दोष के कारण नहीं होते। -अनीश्वर-जिसके पास असाधारण दिव्य शक्तियां नहीं हैं, ऐसा व्यक्ति-ऐसी वस्तुओं को करने का कभी मन से भी विचार न करे, क्योंकि उनको करने से वह विनाश को प्राप्त होगा। जैसे कि शंकर ने समुद्र से उत्पन्न विष को पान कर लिया था, यह सुनकर कोई मूर्खता से विष पान करने लगे तो उसकी मृत्यु ही होगी। - महान व्यक्तियों की वाणी सत्य होती है और उनके द्वारा किये कार्य कभी ठीक होते हैं (और कभी ठीक नहीं भी होते)। अतः बुद्धिमान व्यक्ति उनके उसी पाचरण का अनुवर्तन करे, जो उनकी वाणी (प्राज्ञामों) के अनुकूल पड़ते हों। प्राचार्य तुलसी कहते हैं : "एकान्तवासी भी विचलित हो जाते हैं तब स्त्री के संसर्ग में रहकर ब्रह्मचर्य को निभानेवाले विरले ही मिलेंगे। रात में स्त्री रहे वहाँ पुरुष न रहे, पुरुष हो वहाँ स्त्री न रहे।" १-देखिए पृ० ८३ । ब्रह्मचर्य के विषय पर इतनी मार्मिक, रसयुक्त और बोधप्रद कथा अन्यत्र देखने में नहीं आती। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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