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________________ भूमिका को वश में करनेवाला पुरुष अनुपम भावसन्धि-(कर्म-क्षय की मानसिक दशा) को प्राप्त करता है" (सूत्र०।१५:१२)। "उत्तम समाधि में अवस्थित ब्रह्मचारी इस संसार-सागर को उसी तरह तिर जाते हैं, जिस तरह वणिक् समुद्र को।" . - महात्मा गांधी और टाल्स्टॉय के विचार प्रागमिक विचारधारा से अद्भुत सामञ्जस्य रखते हैं। पागम में ब्रह्मचर्य महापुरुष की गरिमा का माप दण्ड बना है। उदाहरणस्वरूप प्रागम में कहा है-"जैसे तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है, उसी तरह महावीर लोगों में उत्तम श्रमण थे।" कि ब्रह्मचर्य की महिमा सभी धर्म-ग्रन्थों में पाई जाती है। उपनिषद् में कहा है: "जिसे क्षीणदोष संयमी देखते हैं, उस ज्योतिमय शुभ्र प्रात्मा को सत्य द्वारा, तप द्वारा, सच्चे ज्ञान द्वारा और ब्रह्मचर्य के नित्य सेवन द्वारा अन्तःकरण में देखा जा सकता है। अन्य उपनिषद् में कहा है : "जिसे 'यज्ञ' कहते हैं, वह ब्रह्मचर्य ही है। क्योंकि जो ज्ञाता है, वह इसके द्वारा ही ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। जिसे 'इष्ट' कहते हैं, वह भी ब्रह्मचर्य ही है। क्योंकि इसके द्वारा खोज करके ही पुरुष प्रात्मा को प्राप्त करता है। जिसे 'सत् त्रायण' कहा जाता है, वह भी ब्रह्मचर्य ही है। क्योंकि उसके द्वारा ही वह सत्-प्रात्मा का त्राण प्राप्त करता है। जिसे 'मौन' कहते हैं, वह भी ब्रह्मचर्य ही है । क्योंकि इसके द्वारा ही आत्मा को जान कर पुरुष उसका मनन करता है...." बुद्ध कहते हैं : "ब्रह्मचर्य बिना पानी का स्नान है५" " ii पहली बार (दाल):विविक्त डायनासन E a rera प्रागम में ब्रह्मचारी के शयन-वास-स्थान और प्रासन-उठने-बैठने के स्थान के सम्बन्ध में समुच्चय आज्ञा यह है कि जिस स्थान में मन विभ्रम को प्राप्त हो, व्रत के सम्पूर्ण रूप से या अंश रूप से भंग होने की आशंका हो और आर्त एवं रौद्र ध्यान उत्पन्न होते हों, उस स्थान का पाप-भीरु ब्रह्मचारी वर्जन करे । ब्रह्मचारी का शयन-प्रासन विविक्त–एकति होना चाहिए। जहां स्त्री-पशु-नपुंसक बसते हों उस स्थान में उसे वास अथवा उठ-बैठ नहीं करनी चाहिए। . __ स्वामीजी ने इस बाड़ का स्वरूप बतलाते हुए तीन बात कही है... ................ (१) ब्रह्मचारी स्त्री प्रादि से शून्य एकांत में रात्रि-वास करे। (२) अकेली नारी की संगति न करे। (३) अकेली स्त्री के साथ पालाप-संलाप न करे; यहाँ तक कि उससे धर्म-कथा भी न कहे। इस प्रकार पहली बाड़ में संसक्तवास, स्त्री-संगति और स्त्री के साथ एकान्त में पालाप-संलाप करने का वर्जन है। तवेस वा उत्तम बम्भचेरं लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ३-मंडकोपनिषद् ३.१.५ : सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यप आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः॥ profile ४-छान्दोग्योपनिषद् ५.८:१-४ ५-संयुक्तनिकाय १.८.६ ६-पृ० १५ टि०५. ७-पृ०.१५ टि०२,४ ८-ढाल २ दो० ५,८, गा० ३,४,५ ६-ढाल २ दो०६, गा०३ १०-दाल २ दो०६ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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