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________________ शील की नव बाड़ कर्तव्यपूर्वक जितनी सन्तानों के पालन की क्षमता दम्पति में हो, उतनी सन्तानों के लिए हो सकता है । हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भी एक सन्तति का विधान नहीं है, जैसा कि उपर्यक्त कथा से स्पष्ट है। - महात्मा गांधी के अनुसार कामानि की तृप्ति के कारण किया हुआ संमोग त्याज्य है-निन्द्य नहीं। संत टॉल्स्टॉय कहते हैं : "यदि तू स्त्री को-भले ही वह तेरी पत्नी हो-एक भोग और आमोद-प्रमोद की सामग्री समझता है तो व्यभिचार करता है। विषयानन्द.. पतन है।" - जैन दृष्टि से विषय-तृप्ति और सन्तानोत्पत्ति-ये दोनों ही हेतु सावद्य-पापपूर्ण हैं । सन्तान की कामना स्वयं एक वासना है। संभोगक्रिया में फिर वह भले ही किसी भी हेतु से हो-इन्द्रियों के विषयों का सेवन होता ही है। मोह-जनित नाना प्रकार की चेष्टाएँ होती हैं। ये सब विकार हैं। यह संभव है कि कोई संभोग तीत्र-परिणामों से करे और कोई हल्के परिणामों से । जो तीव्र परिणामों से प्रवृत होता है वह गाढ़ बंधन करता है और जो हल्के परिणामों से प्रवृत होता है, उसका बंधन हल्का होता है। समानता . आ सन्तानोत्पत्ति में स्वधर्म पालन जैसी कोई बात नहीं। प्राने पीछे अपना वारिस छोड़ जाने की भावना में मोह और अहंकार ही है। अनासक्तिपूर्वक सन्तानोत्पादन करनेवाला ब्रह्मचारी ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह भी भोगी है। यदि भावों में तीव्रता नहीं है तो उसका बंधन कठोर नहीं होगा। इतनी ही बात है। हेतु से दोषपूर्ण क्रिया निर्दोष नहीं हो सकती। अशुद्ध साधन हेतुवश-प्रयोजनवश शुद्ध नहीं हो : सकता। जैन दृष्टि से एकवार के संभोग में मनुष्य नौ लाख सूक्ष्म पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करता है (भगवती २.५ और टीका)। मिनट लिखते 2 योनियन्यसमुत्पन्नाः सुसूत्मा जन्तुराशयः। .... पीढ्यमाना विपद्यन्ते, यत्र तन्मैथुनं त्यजत् ॥ 5 वी प्रश्नव्याकरण सूत्र में प्रब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में कहा है: "प्रब्रह्मचर्य चौथा पाप-द्वार है । यह कितना प्राश्चर्य है कि देवों से लेकर मनुष्य और असुर तक इसके लिये दीन-भिखारी बने हुए हैं। "यह कादे और कीचड़ की तरह फंसानेवाला और पाश की तरह बंधन-रूप है । यह तप, संयम और ब्रह्मचर्य को विघ्न करनेवाला, चारित्र-रूपी जीवन का नाश करनेवाला और अत्यन्त प्रमाद का मूल है। यह कायर और कापुरुषों द्वारा सेवित और सत्पुरुषों द्वारा त्यागा हुआ है। स्वर्ग, नरक और तिर्यक इन तीनों लोक का आधार-संसार की नींव और उसकी वृद्धि का कारण है । जरा-मरण, रोग-शोक की परम्परा वाला है। बध, बन्धन और मरण से भी इसकी चोट गहरी होती है । दर्शन-तत्वों में विश्वास करने और चारित्र-सद्धर्म अङ्गीकार करने में विघ्न करनेवाले मोहनीयकर्म का हेतुभूत-कारण है। जीव ने जिस का चिर संग किया फिर भी जिससे तृप्ति नहीं हुई-ऐसा यह चौथा भास्रवद्वार दुरन्त और दुष्फलवाला है । यह अधर्म का मूल और महा दोषों की जन्मभूमि है। "प्रब्रह्मचर्य-सेवन से अल्प इन्द्रिय-सुख मिलता है परन्तु बाद में वह बहुत दुखों का हेतु होता है । यह प्रात्मा के लिए महा भय का कारण है। पाप-रज से भरा हुमा है। फल देने में बड़ा कर्कश है-दारुण है । सहस्रों वर्षों तक इसका फल नहीं चुकता-जीव को इसके कुफल बहुत दीर्घ काल तक भोगने पड़ते हैं।" अब्रह्म की यह प्रकृति सन्तानोत्पत्ति के हेतु से नहीं मिट सकती और वह हमेशा है जैसी ही सदोष रहेगी। श्रमण भगवान महावीर के अनसार सन्तानोत्तत्यर्थ किया हुआ मैथुन भी पाप है। पति-पत्नी का विषय-तृप्ति के लिए किया हुआ मैथन लोक-निंद्य अवश्य नहीं है पर ज्ञानियों की दृष्टि में अपने मूल स्वरूप में वह भी पाप ही है और जिन-प्राज्ञा सम्मत नहीं। १-स्त्री और पुरुष पृ० १०२ २-योगशास्त्र २.७६ ३-प्रश्नव्याकरण सूत्र : चतुर्थ आस्रव द्वार ४–दशवकालिक सूत्र ६.१७ ५-प्रश्नव्याकरण सूत्र : चतुर्थ आस्रव द्वार Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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