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________________ भूमिका एक पुरानी कथा इस रूप में मिलती है : Se वशिष्ठ की कुटिया के सामने एक नदी बहती थी। दूसरे किनारे विश्वामित्र तप करते थे । वशिष्ठ गृहस्थ थे। जब भोजन पक जाता तो पहले संवती थाल परोसकर विश्वामित्र को खिलाने जाती, बाद को वशिष्ठ के घर पर सब लोग भोजन करते, यह नित्य-क्रम था । एक रोज बारिश हुई और नदी में बाढ़ आ गई । प्रधती उस पार न जा सकी। उसने वशिष्ठ से इसका उपाय पूछा । उन्होंने ने कहा'जाओ, नदी से कहना, मैं सदा निराहारी विश्वामित्र को भोजन देने जा रही हूँ, मुझे रास्ता दे दो।' अरुंधती ने इसी प्रकार नदी से कहा- और उसने रास्ता दे दिया । तब अरुंधती के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ कि विश्वामित्र रोज तो खाना खाते हैं, फिर निराहारी कैसे हुए ? जब विश्वामित्र खाना खा चुके तब श्ररुंधती ने उनसे पूछा- 'मैं वापस कैसे जाऊँ, नदी में तो बाढ़ है ?' विश्वामित्र ने उलट कर पूछा - ' तो आई कैसे ?' उत्तर में अरुंधती ने वशिष्ठ का पूर्वोक्त नुसखा बतलाया। तब विश्वामित्र ने कहा- 'अच्छा तुम नदी से कहना, सदा ब्रह्मवारी वशिष्ठ के यहाँ लौट रही हूँ । नदी, मुझे रास्ता दे दो ।' श्रहंती ने ऐसा ही किया और उसे रास्ता मिल गया । श्रथ तो उसके अचरज का ठिकाना न रहा। वशिष्ठ के सौ पुत्रों की तो वह स्वयं ही माता थी। उसने वशिष्ठ से इसका रहस्य पूछा कि विश्वामित्र को सदा निराहारी और श्राप को सदा ब्रह्मचारी कैसे मानूं ? वशिष्ठ ने बताया- 'जो केवल शरीर रक्षण के लिए ईश्वरार्पण-बुद्धि से भोजन करता है, वह नित्य भोजन करते हुए भी निराहारी है और जो केवल स्व-धर्म पालन के लिए अनासक्तिपूर्वक सन्तानोत्पादन करता है, वह संभोग करते हुए भी पारी ही '' २५ इस पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी लिखते हैं : '...... धार्मिक दृष्टि से देखें तो एक ही संतति 'धर्मज' या 'धर्मजा' है। मैं पुत्र और पुत्री के बीच भेद नहीं करता हूँ; दोनों एक समान स्वागत के योग्य हैं। वशिष्ठ, विश्वामित्र का दृष्टान्त साररूप में अच्छा है उससे इतना ही सार निकालना काफी है कि सन्तानोत्पत्ति के ही अर्थ किया हुआ संयोग ब्रह्मचर्य का विरोधी नहीं है। कामानि की तृप्ति के कारण किया हुआ संभोग त्याज्य है। उसे निद्य मानने की आवश्यकता नहीं । असंख्य स्त्री-पुरुषों का मिलन भोग के ही कारण होता है, और होता रहेगा ।..... इस विषय में संत टॉल्स्टॉय के विचार प्रायः उपर्युक्त विचारों से मिलते हैं मैं समझता हूँ विवाह में सहवास (संभोग) एक आचारविरुद्ध कर्म (व्यभिचार ) नहीं है; परन्तु इस बात को प्रमाण के साथ लिखने के पहले मैं इस प्रश्न पर कुछ अधिक ध्यानपूर्वक विचार कर लेना चाहता हूँ। क्योंकि इस कथन में भी कुछ सत्यता प्रतीत होती है कि काम पिपासा बुझाने के लिए अपनी धर्म पत्नी के साथ भी किया गया संभोग पाप है। मैं तो समझता हूँ इन्द्रिय-विच्छेद कर देना वैसा ही पाप कर्म है, जैसा कि विषय सुख के लिए संभोग (रति) करना। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि आवश्यकता से अधिक खा लेना । जो भोजन मनुष्य को अपने अन्य भाइयों की सेवा करने के योग्य बनाता है, वह न्यायोचित भोजन है, और इसी प्रकार वह मैथुन भी न्यायोचित ( जायज ) है, जो सन्तानोत्पत्यर्थ (वंश चलाने के उद्देश्य से) किया जाता है । ... यह कहना सही है कि स्व-पत्नी के साथ किया हुआ संभोग भी प्राचार विरुद्ध अर्थात् व्यभिचार है, यदि वह बिना श्राध्यात्मिक (विशुद्ध) प्रेम के, केवल विषय-सुख के लिए और इसलिए नियत समय के ऊपर न किया गया हो; पर यह कहना सर्वथा अनुचित और भ्रममूलक है कि सन्तानोत्पत्यर्थ और विशुद्ध श्राध्यात्मिक प्रेम के होते हुए किया गया मैथुन भी पाप है। वास्तव में वह पाप नहीं किन्तु ईश्वर की आज्ञा का पालन करना है ।" 5 संभोग के दो प्रयोजन हो सकते हैं- एक विषय-वासना की पूर्ति और दो जरूरत से प्रजोलादन। ऊपर के दोनों वक्तव्यों का सार यह है कि विवाहित जीवन का यह नियम होना चाहिए कि कोई भी पति-पत्नी बिना श्रावश्यकता के प्रजोसत्ति न करें और प्रजोत्पादन के हेतु बिना संभोग न करें। महात्मा गांधी की दृष्टि से संभोग एक ही सन्तान के लिए हो सकता है; उसके बाद नहीं होना चाहिए। संत टॉल्स्टॉय के अनुसार १. ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ० ८५ २ वर्ष (पहला भाग) पृ० ८५८७ का सार ३- स्त्री और पुरुष पृ० ५६-६० से संक्षिप्त www Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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