SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शील की नव बाड़ ११-विवाहित-जीवन और भोग-मर्यादा ईसा का मादेश है-"अपने माता-पिता, बीबी-बच्चे मादि को छोड़ कर मेरा अनुसरण कर ।" प्रश्न है जो माता-पिता, बीबी-बच्चे को नहीं छोड़ता क्या वह ईसा का अनुसरण नहीं कर सकता ? संत टॉलस्टॉय इसका उत्तर देते हुए लिखते हैं-"इन शब्दों का अर्थ तुमने ग़लत समझा है। जब मनुष्य के चित्त में धार्मिक और पारिवारिक कर्तव्यों के बीच युद्ध छिड़ जाय, तब समझौते की शतें बाहर से पेश नहीं की जा सकतीं। बाहरी नियम या उपदेश कोई काम नहीं कर सकते। इनको तो मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार खुद ही सुलझाना चाहिए। प्रादर्श तो वही रहेगा-'अपनी पत्नी को छोड़ कर मेरे पीछे चल' पर यह बात तो केवल वह प्रादमी और परमात्मा ही जानता है कि इस प्रादेश का पालन वह कहाँ तक कर सकता है ?" टॉल्स्टॉय के कथन का अभिप्राय यह है कि अगर ऐसी शक्ति न हो तो वह पुरुष पत्नी के साथ रहता हुपा ही यथाशक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करे। उन्होंने लिखा है : “मैं तो केवल एक ही बात सोच और कह सकता हूँ। विवाह हो जाने पर भी पाप को बढ़ाने का मौका न देते हुए अपनी शक्ति भर और जीवन भर अविवाहित का-सा सयंमशील जीवन व्यतीत करने की कोशिश करनी चाहिए।" ... "मनुष्य को चाहिए कि वह हमेशा और हर हालत में, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, जहाँ तक वह रह सकता ही ब्रह्मचर्य से रहे। यदि वह पाजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सकता है, तो इससे अच्छा वह और कुछ कर ही नहीं सकता। परन्तु यदि वह अपने आपको रोक नहीं सकता, अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त करने में असमर्थ है, तो उसे चाहिए कि जहाँ तक हो सके, वह अपनी इस 'निर्बलता के बहुत कम वशीभूत हो, और किसी अवस्था में विषयोपभोग को प्रानन्द की वस्तु न समझे।" - महात्मा गांधी लिखते हैं : "विविध रंगों का चाहे-जसा मिश्रण सौन्दर्य का चिह्न नहीं है, और न हर तरह का पानन्द ही अपने-पाप में कोई अच्छाई है । कला और उसकी जो दृष्टि है उसने मनुष्य को यह सिखाया है कि वह उपयोगिता में ही प्रानन्द की खोज करे। इस प्रकार अपने विकास के प्रारंभिक काल में ही उसने यह जान लिया था कि खाने के लिए ही उसे खाना नहीं खाना चाहिए, बल्कि जीवन टिका रहे, इसलिए खाना चाहिए। ....."इसी प्रकार जब उसने विषय-सहवास या मैथुनजनित प्रानन्द की बात पर विचार किया तो उसे मालूम पड़ा कि अन्य प्रत्येक इन्द्रिय की भांति जननेन्द्रिय का भी उपयोग दुरुपयोग होता है और इसका उचित कार्य याने सदुपयोग इसी में है कि केवल प्रजनन या संतानोत्पत्ति के ही लिए सहवास किया जाय। इसके सिवा और अन्य प्रयोजन से किया जानेवाला सहवास अ-सुन्दर है।... "यही अर्थ गृहस्थाश्रमी के ब्रह्मचर्य का है अर्थात्--स्त्री-पुरुष का मिलन सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए ही उचित है, भोग-तृप्ति के लिए कभी नहीं। यह हुई कानुनी बात अथवा प्रादर्श की बात। यदि हम इस आदर्श को स्वीकार करें तो यह समझ सकते हैं कि भोगेच्छा की तप्ति अनचित है और हमें उसका यथोचित त्याग करना चाहिए। आजकल भोग-तृप्ति को आदर्श बताया जाता है। ऐसा आदर्श कभी हो नहीं सकता, यह स्वयंसिद्ध है। यदि भोग आदर्श है तो उसे मर्यादित नहीं होना चाहिए । अमर्यादित भोग से नाश होता है, यह सभी स्वीकार करते हैं। त्याग ही प्रादर्श हो सकता है और प्राचीन काल से रहा है। - "स्त्री-पुरुष के समागम का उद्देश्य इन्द्रिय-सुख नहीं, बल्कि सन्तानोत्पादन है और जहां संतान की इच्छा न हो वहाँ संभोग पाप है।" 2, महात्मा गांधी के अनुसार स्त्री-भोग विवाहित जीवन में भी अल्प बार ही हो सकता है। उन्होंने लिखा है-"संतति के कारण ही तो एक ही बार मिलन हो सकता है। अगर वह निष्फल गया तो दोबारा उन स्त्री-पुरुषों का मिलन होना ही नहीं चाहिए। इस नियम को जानने के बाद इतना ही कहा जा सकता है कि जब तक स्त्री ने गर्भ धारण नहीं किया तब तक, प्रत्येक ऋतुकाल के बाद, प्रतिमास एक बार स्त्री-पुरुष मिलन क्षतव्य हो सकता है, और यह मिलन भोग-तृप्ति के लिए न माना जाय।" जैन धर्म के अनुसार संतान-प्राप्ति के लिए सहवास भी विषय-सेवन है और उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहा जा सकता जैसा कि कहा गया है-"जो दंपत्ति गृहस्थाश्रम में रहते हुए केवल प्रजोत्पत्ति के हेतु ही परस्पर संयोग और एकांत करते हैं, वे ठीक ब्रह्मचारी हैं।" १-स्त्री और पुरुष पृ०६७ -२-वही पृ०६८ ३-वही पु०३६ ४-ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ० २५-२६ ५–ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ०१७ -अनीति की राह पर पृ०७४ । -ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ० १७ न E-बही पृ०८१ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy