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________________ परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त Pok सकता हूँ। एलाची कुमार ने यह बात स्वीकार कर ली। वह नदी के लिये माता-पिता, धन-दौलत आदि का त्याग कर नटी के साथ हो गया। उसने सुन्दर वस्त्रों को त्याग कर एक कच्छ पहन लिया गले में ढोल डाला, पीठ पर वस्त्रादिक की गठरी लटका ली, एक कन्धे पर बाँस रखा और दूसरे कन्धे पर सामान की काँवर । इस तरह वह नट के वेश में उस दल के साथ गाँव-गाँव में भटकने लगा। नटों के साथ उसने अल्पकाल में ही नाट्य कला में कुशलता प्राप्त कर ली। इधर उस नट की पुत्री भी उसका सौन्दर्य व त्याग देख कर मन ही मन उसपर मुग्ध हो रही थी । परन्तु माता-पिता की आज्ञा प्राप्त किये बिना अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर सकती थी। कुछ दिनों के बाद नट ने जब देखा कि एलाची कुमार नाट्य-कला में प्रवीण हो तो गया है, उसने कहा – “अब आप समस्त नाटक मण्डली व साज-सामान लेकर बेनातट नगर जाइये और वहाँ के राजा को प्रसन्न कर अधिक से अधिक धन ले आइये । उस धन से मैं अपने जाति-बन्धुओं को सन्तुष्ट कर अपनी पुत्री के साथ आपका विवाह कर दूँगा ।" नटराज के ये वचन सुनकर एलाची कुमार बड़ा प्रसन्न हुआ और वह उसी दिन नट -पुत्री के साथ नाटक-मण्डली को लेकर बेनातट नगर की ओर रवाना हुआ । बेनातट पहुँचते ही सर्वप्रथम उसने राजा से मुलाकात की तथा उनसे नाटक देखने की प्रार्थना की। राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। राजा के महल के सामने एक बहुत बड़ा मैदान था। वहीं पर खेल दिखाना निश्चित हुआ। राजा द्वारा आश्वासन पाकर एलाची ने नाटक दिखाने की तैयारी कर ली। उसने मैदान में बाँस गाड़कर पारों ओर रस्सियां बाँध दीं। राजा भी अपने मंत्री व स्वजनों के साथ खेल देखने के लिये सिंहासन पर बैठ गया ।। यथा समय एलाची ने खेल दिखाना शुरू किया। उसने सर्वप्रथम उस बाँस पर एक तख्ता रखवाया। उस तरुते के मध्य भाग में एक फील गड़ी हुई थी। उसने उस कील पर सुपारी रखी। इसके बाद दोनों पैरों में घूंघर बाँध, खड़ाऊँ पन, एक हाथ में तलवार व दूसरे हाथ में ढाल लेकर, वह उस बाँस पर चढ़ा। वहाँ उस सुपारी पर अपनी नाभि रखकर कुम्हार की चाक की तरह चारों ओर घूमने लगा। घूमते समय यह तलवार व ढाल के भिन्न-भिन्न प्रकार के खेल भी दिखाता जाता था। इधर नट-कन्या भी सुन्दर वस्त्रों से सज्जित हो मधुर गीत गाती हुई नृत्य कर रही थी। उसके अन्य साथी तरह-तरह के बाजे व ढोल बजाकर नाटक में रंग ला रहे थे। जनता नाटक देखकर मुग्ध हो रही थी । वाह ! वाह ! के उत्साहवर्द्धक शब्द समवेत जनता के मुख से निकल रहे थे। इधर राजा नदी के दाव-भाव, व रूप यौवन तथा कला को देखकर मुग्ध हो गया और सोचने लगा-"यदि यह नटी मेरे अन्तःपुर में आ जाय, तो मेरा जीवन धन्य किन्तु इस नट के जीवित रहते मेरी अभिलाषा पूरी कैसे हो सकती है ? इस नट-कन्या के बिना तो मेरा जीना ही व्यर्थ है। इसे तो किसी न किसी उपाय से प्राप्त करना ही होगा। हाँ यदि यह नट खेल दिखाते दिखाते बॉस से गिर कर मर जाय तो यह नटी मुझे आसानी से मिल सकती है।" अब राजा मन में यही सोचने लगा कि नट किसी तरह । गिरकर मर जाय और मैं नटी को प्राप्त कर हूँ। राजा इस प्रकार सोच ही रहा था कि जर अपना खेल पूर्ण करके बॉस से नीचे उतरा और इनाम पाने के लिये राजा की तरफ बढ़ा। राजा को छोड़कर सभी दशक मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा कर रहे थे और इनाम देने की सुक हो रहे थे। किन्तु राजा के पहले पुरस्कार देना राजा का अपमान करना था। इसलिये सबकी दृष्टि उसी और लगी हुई थी। राजा उस समय बुरी वासना के चक्कर में पड़कर कुछ और ही सोच रहा था । राजाने कहा"हे नटराज ! में राजकाज की चिन्ता से कुछ अस्त-व्यस्त सा हो रहा था, इसलिये तुम्हारा खेल अच्छी तरह से नहीं देख सका। तुम एक बार फिर खेल दिखाओ तब तुम्हें इनाम दूंगा ।" एलाची कुमार लोभ व कामना के कारण दीन-हीन हो रहा था। वह यह अच्छी तरह जानता था कि बाँस पर फिर से चढ़ना खतरे से खाली नहीं है, लेकिन फिर Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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