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________________ १०४ शील की नव बाड़ PAAPPINGHATANIPA ले ली। रूपी राजकुमारी साध्वी हो गई। रूपी साध्वी का मन सदैव श्रेष्ठीपुत्र में लगा रहता था। अतः वह किसी न किसी बहाने श्रेष्ठीपत्र के पास आती और उन्हें खूब आसक्त-भाव से देखती। रूपी साध्वी के बार-बार देखते रहने से श्रेष्ठीपत्र का भी मन उसके प्रति आसक्त हो गया और वह भी अत्यन्त आसक्ति से रूपी साध्वी को देखने लगा। इस प्रकार परस्पर एक दूसरों को आसक्ति-पूर्ण नेत्रों से देखने के कारण दोनों चक्षु-कुशील हो गये। एक दिन दोनों को इस प्रकार आसक्तिपूर्ण नेत्रों से देखते हए अन्य मुनियों ने देख लिया और उनसे पूछा क्या तुम दोनों का एक दूसरे के प्रति अनुराग है रूपी साध्वी ने अरिहन्त भगवान् की सौगन्ध खाकर कहा-"इसके प्रति मेरी कोई आसक्ति नहीं?" श्रेष्ठीपुत्र ने भी इनकार कर दिया। दोनों ने अपने पाप-भाव को छिपाने के लिए बहुत बड़ा झूठ बोलकर बहुत कम उपार्जन किये। मृत्यु के समय दोनों ने अपने पाप की आलोचना नहीं की। बिना आलोचना किये मरकर अनन्त संसारी बने। इस प्रकार रूपीराय चक्षु-कुशील बनकर करोड़ों भवों में भटका और अनन्त दुःख पाया। रूपीराय करोड़ों भव-भ्रमण करती हुई पुनः नट कन्या बनी। श्रेष्ठीपुत्र मर कर वसन्तपुर नगर के सागरदत्त श्रेष्ठी के घर जन्मा जिसका नाम एलाची कुमार रखा गया। आगे की कथा के लिए एलाचीपुत्र की कथा देखिये । कथा-२२ एलाचीपुत्र [इसका सम्बन्ध टाल ५ गाथा ११ (पृ० ३१) के साथ है ] इलावर्धन एक रमणीय नगर था। वहां धनदत्त नामक एक धनाढ्य सेठ रहता था। धारणी उसकी पतिपरायणा पत्नी थी। अनेक मनौतियों के पश्चात् धनदत्त के यहां पुत्ररत्न का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया एलाचीपुत्र । उसकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। इसलिए उसने अल्पकाल में ही समस्त कलाओं में दक्षता प्राप्त कर ली। एक समय उस नगर में नटों का दल आया। वह दल अभिनय-कला में बहुत कुशल था। नगर के मध्य भाग में एक बहुत बड़ा मैदान था। उसी मैदान में बांस गाड़ कर वे नगरवासियों को अपनी नाट्य-कला दिखाने लगे। दर्शकों की भीड़ लग गई। नगरनिवासियों के साथ एलाचीकुमार भी नाटक देखने के लिए वहां पहुंच गया। उस नट के साथ उसकी एक पुत्री थी। वह अतीव सुन्दर थी। उस नाटक में वह भी पार्ट अदा कर रही थी। उस अनन्य सुन्दरी । नटकन्या के रूप, यौवन व कला को देखकर एलाची कुमार मुग्ध हो गया। उसने मन में प्रतिज्ञा करली-“यदि मैं विवाह करूँगा तो उसीके साथ करूँगा, अन्यथा नहीं। नाटक समाप्त हो गया। लोग अपने स्थानों पर जाने लगे, किन्तु एलाची कुमार वहीं रह गया। मित्रों के बहुत समझाने पर वह घर आया और उसने अपने मित्रों के द्वारा अपने पिता को कहला भेज़ा-“मैं तभी अन्न-जल स्वीकार करूँगा, जब मेरा विवाह नट-कन्या के साथ होना निश्चित हो जाय।" पिता ने - पुत्र को बहुत समझाया लेकिन उसने एक भी बात नहीं मानी। अन्ततः उसके पिता ने नट को बुलाया और उससे कहा"मेरा पुत्र तुम्हारी कन्या से विवाह करना चाहता है। तुम उसकी शादी मेरे लड़के के साथ में कर दो। इसके बदले में मैं तुम्हे इतना अधिक धन दूंगा कि तुम्हारी सारी दरिद्रता दूर हो जायगी।” र नट ने कहा- सेठ ! मैं अपनी पुत्री को बेचना नहीं चाहता। अगर वह मेरी पुत्री से विवाह करना चाहता है, तो वह स्वयं नट बने तथा नाट्य-कला में प्रवीण होकर राजा को प्रसन्न कर धन प्राप्त करे, तो मैं अपनी पुत्री उसे दे - - Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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