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________________ शील की नव वाड़ भी वह नटी के सौंदर्य के कारण वास पर चढ़ा तथा उसने नाना प्रकार के खेल दिखाए। इस बार भी दर्शकों को पूर्ण सन्तोप हुआ। खेल समाप्त हुआ। एलाची कुमार ने नीचे उतर कर राजा को प्रणाम किया और इनाम की आशा से सामने खड़ा होगया। राजा मन में सोचने लगा-"यह तो इस बार भी कुशल पूर्वक नीचे उतर आया है। मेरी तो इच्छा पूर्ण नहीं हुई। इसके जीवित रहते मैं नटी को कैसे पा सकता है, इसलिए इसको पुनः खेल दिखलाने के लिए कहना चाहिए।” इस प्रकार विचार कर राजा ने पूर्ववत् जवाब दिया और फिर से खेल दिखाने का आग्रह किया। राजा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर राजा के प्रति लोगों के मन में शंका उत्पन्न हो गई। वे सोचने लगे कि राजा तो नटी के रूप पर मुग्ध हो गया है और नटराज की मृत्यु चाहता है। इसलिए बार-बार राज्य की चिन्ता का बहाना बना कर खेल दिखाने का आग्रह करता है। - एलाची ने नटी पाने की इच्छा से पुनः खेल दिखाया और कुशल क्षेम पूर्वक नीचे उतर आया। राजा इससे बहुत लज्जित हुआ। उसकी मन की इच्छा मन में ही रह गई। वह चिंता में पड़ गया-इस नट से क्या कहूं और किस बहाने उसे वांस पर चढ़ाऊँ। अन्त में उसकी दुर्वासना ने जोर मारा। उसने फिर धृष्टतापूर्वक कहा"नटराज अभी मुझे पूरा सन्तोष नहीं हुआ है। पुनः एक वार तुम्हारा खेल देखना चाहता हूं। इस बार तुम्हें अवश्य ही इनाम दूंगा।" राजा की बात को सुनकर नटराज निरुत्साहित हो उठा। नटी उसके भाव को ताड़ गई। उसने पुनः एलाची कुमार को उत्साहित किया। अपनी प्रियतमा का प्रोत्साहन पाकर वह पुनः बांस पर चढ़ा और तरह-तरह के खेल दिखाने लगा। ................ . . ठीक इसी समय कोई तपस्वी मुनिराज आहार के लिए पास के किसी धनिक सेठ के घर पहुंचे। सेठ की पत्नी अत्यन्त रूपवती थी। वह उस समय घर में अकेली थी। वह श्राविका थी, इसलिए मुनिराज को आते देखकर कुछ कदम आगे बढ़कर उसने उनका स्वागत किया और बड़े आदर पूर्वक अन्दर ले आई। मोदक का थाल अन्दर से लाकर स श्रद्धा पूर्वक दान करने लगी। मुनिराज बड़े समतावान थे। मुनि की दृष्टि नीचे की ओर थी। उन्होंने भूलकर भी अपनी नजर ऊपर नहीं की। इस दृश्य को देखकर एलाची कुमार के हृदय पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपने मन में कहने लगा,-"अहो । अप्सरा के समान रूपवती रमणी हाथ में लड्डुओं का थाल लेकर अकेली सामने खडी है, फिर भी धन्य हैं ये मुनिराज जो आँख उठाकर भी उसके सामने नहीं देखते। ये भी एक मानव हैं जिनका हृदय सुन्दर रमणी को देखकर व एकान्त में पाकर भी विचलित नहीं होता और में भी एक मनुष्य हूँ, जो स्त्री के लिए वैभव त्यागकर दर-दर की ठोकरें खा रहा हूं। यदि इस वक्त में गिर पडू और नटी का ध्यान करते हुए मर जाऊँ तो मुझे मर कर अवश्य दर्गति का द्वार देखना पड़ेगा।" ....... इधर राजा के मन में भी सद् विचार आये और उसको भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ। राजा की रानी व नटी के भी परिणाम शुद्ध होने लगे और संसार-स्वरूप को विचार करते-करते उन्हें भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन केवलियों का उपदेश पाकर अनेक लोगों ने श्रावक-व्रत, साधु-व्रत स्वीकार किये और अन्त में सिद्ध गति को प्राप्त कर अनन्त सुखी बने। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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