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________________ परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त १०३ यह त्यागी नहीं कहलाता। सच्चा त्यागी तो वह है जो मनोहर और कान्त भोगों के सुलभ होने पर भी उन्हें पीठ दिखाता है उनका सेवन नहीं करता।" "यदि समभाव पूर्वक विचरते हए भी कदाचित मन बाहर निकल जाय तो यह विचार कर किया है और न मैं उसका हूँ, मुमुक्षु विषय-राग को दूर करे।" . __"आत्मा को कसो, सुकुमारता का त्याग करो, वासनाओं को जीतो, संयम के प्रति द्वेष-भाव को छिन्न करो, विपयों के प्रति राग-भाव का उच्छेद करो। ऐसा करने से शीघ्र ही सुखी बनोगे।" "साध्वी राजीमती के ये मर्मस्पर्शी शब्द सुनकर, जैसे अंकुश से हाथी रास्ते पर आ जाता है वैसे ही रथनेमि का मन स्थिर होगया। रथनेमि मन, वचन और काया से सुसंयमी और जितेन्द्रिय बने और व्रतों की रक्षा करते हुए जीवन पर्यन्त शुद्ध श्रमणत्व का पालन करते रहे। इस प्रकार जीवन बिताते हुए दोनों ने उग्र तप किया और दोनों केवली बने और सर्व कर्मों का अन्त कर उत्तम सिद्ध गति को पहुंचे। जिस प्रकार पुरुष-श्रेष्ठ रथनेमि विपयों से वापस हटे, उसी प्रकार बुद्धिमान, पण्डित और विचक्षण पुरुप विषयों से सदा दूर रहें और कभी विषय-वासना से पीड़ित भी हों तो मन को वापस खींचे। कथा २१ रूपीराय [इसका सम्बन्ध ढाल ५ गाथा १० [पृ०३१) के साथ है ].. - वसन्तपुर नगर में रूपी नाम की एक राजकुमारी राज्य करती थी। वह पुरुष वेश में रहती थी इसलिए लोग भी उसे पुरुष ही समझते थे। एक समय कोई श्रेष्ठीपुत्र विवाह करने के लिए वसन्तपुर आया। विवाह होने के बाद वहां की रीति के अनुसार, वह भेंट देने के लिए रूपीराय के पास पहुँचा। राजकुमारी उस अत्यन्त रूपवान् श्रेष्ठीपुत्र को देखकर मुग्ध हो गई। उसे एकान्त में बलाकर परस्पर प्रेम करने का प्रस्ताव रखा। श्रेष्ठीपुत्र को पर-स्त्री का त्याग था। राजकुमारी की यह बात सुनकर वह स्तब्ध रह गया। मन में सोचने लगा--"अगर में राजकुमारी के प्रस्ताव को मान लेता हूँ तो मेरा त्याग भंग हो जाता है। अगर नहीं मानता हूँ तो इसका परिणाम मेरे लिए भयंकर भी हो सकता है। कुछ समय तक वह इसी प्रकार सोचता रहा और कोई बहाना बनाकर घर चला आया। घर जाकर उसने इस विषय पर खूब सोचा। अन्त में अपने व्रत की रक्षा के लिए उसे एक ही मार्ग दीखा, वह था दीक्षा। ... श्रेष्ठीपत्र ने गुरुदेव के पास जाकर दीक्षा ले ली। इधर जब राजकुमारी को यह मालूम हुआ कि श्रेष्ठीपत्र ने दीक्षा ले ली है, तो उसे अत्यन्त दुःख हुआ। उसे श्रेष्ठीपुत्र के बिना एक क्षण भी अच्छा नहीं लगता था। वह सोचने लगी- श्रेणीप बम मिल नहीं सकता और में उसके बिना रह नहीं सकती। श्रेष्ठीपुत्र को पाने का एक ही उपाय है। अगर मैं भी दीक्षा ले लूं तो सम्भव है बार-बार सम्पर्क से वह मेरा बन जाय ।” ऐसा सोचकर उसने भी दीक्षा Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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