SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका उसके. बताये हुए रूप में कभी पालन नहीं करते थे। और बहुत थोड़े ही दूसरे क्रम गार्हस्थ्य पाश्रम के उस पार पहुंचते । प्राचीन भारत के बहुत से प्रारण्यक और मुनि आयु में वृद्ध नहीं थे और उन्होंने गार्हस्थ्य प्राश्रम को या तो संक्षिप्त किया था अथवा उसे वाद ही दे दिया। चार आश्रमों की श्रृंखला तथ्यों का प्रादर्शीकरण है और अध्ययन, गार्हस्थ्य और श्रामण्य की विरोधी मांगों को एक जीवन-काल में स्थान देने का कृत्रिम प्रयत्न है। यह संभव है कि आश्रम-व्यवस्था की उत्पत्ति का आंशिक कारण उन अवैदिक बौद्ध और जैन सम्प्रदायों का प्रतिवाद करना रहा हो जो कि युवकों को भी मुनित्व ग्रहण करने की प्रेरणा देते रहे और गार्हस्थ-जीवन को सम्पूर्णत: बाद देते रहे। प्रारंभ में बौद्ध धर्म और जैन धर्म की यह प्रणाली ब्राह्मणों की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर सकी, हालांकि बाद में इसके लिए स्थान बनाना पड़ा।" ५-ब्रह्मचर्य और अन्य महाव्रत य महाव्रत एक बार गणधर गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से पूछा : "भंते ! मैथुन सेवन करनेवाले पुरुप के किस प्रकार का असंयम होता है ?" महावीर ने उत्तर दिया : "हे गौतम ! जैसे एक पुरुष रूई की नली या वूर की नली में तप्त शलाका डाल उसे विध्वंस कर दे। मैथुन-सेवन करनेवाले का असंयम ऐसा होता है।" आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त बात को इस प्रकार रखा है : 'सहवास में प्राणीवध का सर्वत्र सद्भाव रहता है अतः हिंसा भी अवश्य होती है। जिस प्रकार तिलों की नली में तप्त लोह के डालने से तिल भुन जाते हैं, उसी प्रकार मैथन-क्रिया से योनि में बहुत जीवों का संहार होता है। कामोद्रेक से किञ्चित् भी अनङ्गरमणादि क्रिया की जाती है उसमें भी रागादि की उत्पत्ति के निमित्त से हिंसा होती है।" अब्रह्म में हिंसा ही नहीं अन्य पाप भी हैं। प्राचार्य पूज्यपाद लिखते हैं : " अहिंसादि गुण जिसके पालन से सुरक्षित रहते या बढ़ते हैं, वह ब्रह्म है । जिसके होने से अहिंसादि गुण सुरक्षित नहीं रहते, वह अब्रह्म है । अब्रह्म क्या है ? मैथुन । मैथुन से हिंसादि दोषों का पोषण होता है। जो मैथुन-सेवन में दक्ष है, वह चर-अचर सब प्रकार के प्राणियों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, बिना दी हुई वस्तु लेता है तथा चेतन और अचेतन दोनों प्रकार के परिग्रह को स्वीकार करता है।" १-The Wonder that was India pp. 158-159 २-भगवती २.५ : .... ... मेहुणेणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए असंजमे कज्जइ ? गोयमा! से जहा नामए केई पुरिसे रूयनालियं वा, बूरनालियं वा तत्तेणंकणएणं समविद्धंसेज्जा, एरिसएणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ। - ३–(क) पुरुषार्थसिद्ध युपाय १०७; १०८, १०६ : a . यह दरागयोगान्मथुनमाभधायत तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥ अपतरात हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहते तिला यद्वत् । ... बहवो जीवा योनो हिस्यन्ते मेथुने तद्वत् ॥ .. यदपि क्रियते किञ्चिन्मदनोद्रेकादनगरमणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितंत्रत्वात् ॥ (ख) ज्ञानार्णव १३.२ : : मैथुनाचरणे मूढ म्रियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिङ्गसंघटपीडिताः॥ ४-तत्त्वार्थपूत्र ७.१६ सर्वार्थसिद्धि : अहिसादयो गुणा यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म अब्रह्म इति । कि तत् ? मैथुनम् । तत्र हिंसादयो दोषाः पुष्यन्ति । यस्मान्मैथुनसेवनप्रवणः स्थास्नॅचरिष्णून् प्राणिनो हिनस्ति मृपावादमाचष्ट अदत्तमादत्त अचेतनमितरं च परि Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy