SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ शील की नय बाड़ SAF"जैन धर्म में सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व भदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण और सर्व परिग्रह विरमण इन पांच को महावत कहते हैं, यह पहले वताया जा चुका है। जो श्रामण्य (ब्रह्मचर्य) को ग्रहण करता है उसे इन पांचों महायतों को एक साथ ग्रहण करना होता है। जो इन्हें युगपत् रूप से सम्पूर्ण रूप में ग्रहण नहीं करता, वह किसी का पालन नहीं कर सकता। स्वामीजी ने इस बात को अपनी एक अन्य कृति गुरु-शिष्य के संवाद रूप में बड़े ही सुन्दर और मौलिक ढंग से समझाया है। उसका सार इस प्रकार है: गुरु : हिंसा, चोरी, झूठ, प्रब्रह्मचर्य और परिग्रह-इन दुष्कर्मों के माचरण से जीय कर्मों को उपार्जन कर चार गति रूप संसार में श्रमण करता है। अहिंसा, अमिथ्या, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांचों महानतों का निरतिचार पालन करनेवाला पुरुष नये कर्मों का उपार्जन न करता हुआ पुराने कमों का क्षय करता है और इस प्रकार अपनी प्रात्मा को निर्मल कर मोक्ष प्राप्त करता है। शिष्य : मैं पहला महाव्रत ग्रहण करता हूँ-मैं छः प्रकार के जीवों की हिंसा नहीं करूँगा परन्तु मेरी जवान इतनी वश में नहीं कि मैं झूठ छोड़ सकू। अत: मुझे झूठ बोलने की इट है। गुरु : भगवान के बताये हुए पाँच महाप्रत इस तरह ग्रहण नहीं किये जाते । जब तुम झूठ बोलने का त्याग नहीं करते तव यह विश्वास कैसे हो कि तुम हिंसा में धर्म नहीं ठहरावोगे। झूठ बोलनेवाला यह कहते संकोच कैसे करेगा कि देव, गुरु और धर्म के लिए प्राणियों की हिंसा करने में बुराई नहीं और आरंभादि से जीव भली गति को प्राप्त करता है । मिथ्या भाषण द्वारा कोई इस सिद्धान्त का प्रचार करने लग जाय कि हिंसा में भी धर्म है तो महाव्रत की तो बात दूर रही सम्यक्त्व-सत्य दृष्टि का भी लोप हो जाय । शिष्य : स्वामिन् ! मैं हिंसा और झूठ दोनों का त्याग करूंगा परन्तु चोरी नहीं छोड़ सकता । धन से मुझे अत्यन्त मोह है। गुरु : यदि तू जीव-हिंसा और झूठ को छोड़ता है तो तेरी चोरी कैसी निभेगी ? यदि तू चोरी कर सत्य बोलेगा तो लोग तुझे चोरी कब करने देंगे। परधन की चोरी करने से मालिक दुःख पाता है। किसी को दुःख देना हिंसा है । यदि तू कहेगा कि इसमें हिंसा नहीं तो पहले दोनों ही महाव्रत चकनाचूर हो जायेंगे । क्योंकि हिंसा को अस्वीकार करने से झूठ का दोष भी लगेगा। शिष्य : मैं तोनों महाव्रतों को अच्छी तरह ग्रहण करता हूँ। परन्तु चौथा महाव्रत स्वीकार करना मुझ से नहीं बनता । मोहोदय से आत्मा स्ववश नहीं। मैं ब्रह्मचर्यपूर्वक नहीं रह सकता। - गुरु : ब्रह्मचर्य के सेवन से पहले तीनों महाव्रत भंग होते हैं । अब्रह्मचर्य सब गुणों को एक पलक मात्र में उसी तरह छार कर देता है जिस तरह धुनी हुई रूई को आग । मैथुन से पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है । हिंसा नहीं होती, ऐसा कहने से झूठ का दोष लगता है। परप्राण का हरण चोरी है। अब्रह्मचर्य सेवन से प्रभु की आज्ञा का भङ्ग होता है—चोरी लगती है। इस तरह तीनों ही महायत खण्डित हो जाते हैं। शिष्य : मैं चारों ही महाव्रतों को ग्रहण करता हूँ; परन्तु पाँचवां महाव्रत कैसे ग्रहण करूँ ? ममता छोड़ना मेरे लिए कठिन है । मैं नव ही प्रकार का परिग्रह रलूँगा। गुरु : क्षेत्र-वस्तु, धन-धान्य, द्विपद-चीपद, हिरण्य-सुवर्ण और कुम्भी धातु-ये परिग्रह, हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य-इन चारों आस्रवों के मलाधार हैं । तु परिग्रह की छूट रख कर अन्य व्रतों का किस तरह पालन कर सकेगा ?...ऐसा कहना तो तुम्हारी निरी भूल है। शिष्य : खैर; मैं पांचों ही प्रास्रवों का त्याग करता हूं पर एक करण तीन योग से। मेरे स्नेही—संगी बहुत हैं अतः मैं कराने और अनु- मोदन करने की छूट रखता हूँ। - गुरु : घर में तो तुम्हें कोई पूछता ही नहीं था और खाने के लिए तुम्हें अन्न भी नहीं मिलता था और अब भगवान के साधुओं का वेष - ग्रहण करने की इच्छा कर राज्य करने चले हो ! तुमने त्याग कर कितना त्यागा है ? अब तो तुम लोक में हुक्म चलाने की कामना रखते हो ! - इस हिसाब से तुम एक महाराजा से कम कहाँ हो ? शिष्य : मैं पाँचों ही प्रास्रवों का दो करण तीन योग से त्याग करता हूँ। अब केवल अनुमोदन की छूट रहती है। गुरु : अनुमोदन की छूट रखने से तू अपने लिए किया हुआ पाहार आदि स्वीकार करेगा। संयोग बना रहेगा। इससे पांचों ही महाव्रतों में विकार उत्पन्न होगा। हिंसा आदि पाँचों पापों में अनुमोदन की भावना-हर्ष भावना रहने से उनके प्रति तुम्हारा आदर भाव नहीं छूटेगा। इस तरह मन, वचन और काय—इन तीनों ही योगों के विषयों में तुम्हारा प्रार्त-री ध्यान रहेगा। पांच प्रास्रवों का तीन करण तीन योग से VIESS 1028 Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy