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________________ शील की नव था, २–चय तुरणी काया रोग रहीत छ,....... २- वय में तरुण और निरोग शरीर याला ते करें सरस आहारो रे। . . व्यक्ति जब सरस आहार करता है तो यह अच्छी ते आहार रूडी रीत परगमें,......तरह परिणमन करता है। इससे विकार की अत्यन्त तिण सू वधे अतंत विकारो रे ॥ए०॥- वृद्धि होती है । ३-विकार वध्यां ब्रह्म वरत ने, ३-विकार बढ़ने से ब्रह्मचर्य व्रत में अनेक दोष अनेक विध. लागे रे। प्रकार के दोष लगते हैं। अंगों में फुचेष्टाएँ उत्पन्न वलेअंग कुचेष्टा: . उपजें,.. ___ होती हैं और फिर व्रत सर्वथा भंग हो जाता है। ... जाबक वरतः पिण: भांगे रे ॥०॥ ४-सरस आहार नित चापे कीयां, ४-नित्य प्रति लूंस-ठूस कर सरस आहार करने .... वरत भांगे विगडे वेहूँ लोगो रे । से व्रत भंग होता है। दोनों लोक बिगड़ते हैं। वह ... संसार , में - दुखीयों हुवें, संसार में दुःखी होता है और उसके रोग-शोक की वधतो जाए रोग ने सोगो रे ॥५०॥ वृद्धि होती जाती है। ५–वय तुरणी काया जीर्ण पड़ी, ५–तरुण होते हुए भी जिसका शरीर जीर्ण ते. करें सरस आहारो. रे। होता है, वह यदि दूंस-ठूस कर सरस आहार करता तो पेट फाटे - पस्यौं..टलवलें, . है तो उसका पेट फटने लगता है। वह पड़ा पड़ा वले आवे अजीरण डकारों रे॥ए०॥ करवट बदलता रहता है। उसे अजीर्ण की डकारें आने लगती हैं। ....... ६–वले विविध पणे रोग उपजें, ६नित्य प्रति गरिष्ट और सरस आहार करने नित सरस आहार कीधां भारी रे। से विविध प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। धर्म - अकाले मरे धरम खोय ने, खोकर वह अकाल में मृत्यु प्राप्त करता है और र पछे होय जाएं अनंत संसारी रे ॥०॥ अनन्त संसारी बन जाता है। ७-वय तुरणी रो धणी इण विध मरें, ७-नित्य सरस आहार करने से यदि तरुण नित कीधां सरस आहारो रे। वय के स्वामी की इस तरह मृत्यु होती है तो फिर तो बूढा रो कहिवो किसं, वृद्ध का तो कहना ही क्या ? उसका पेट तो तत्काल इणरे पेट तुरत झाले भारो रे ॥ए०॥ ही भारी हो जाता है। "८-द्ध दही विविध पकवान ने, सरस आहार भोगवे रहें सूतों रे । - पाप समण कयों उत्तराधेन में, ते साधपणा थी विगूतो रे ॥०॥ ८ जो नित्य प्रति दूध, दही, घृत और विविध पकवान का सरस आहार करता है और सोवा रहता है, उसको 'उत्तराध्ययन सूत्र में पापी श्रमण कहा है। वह साधुत्व से रहित होता है। Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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