SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका विनोद pr इस चर्चा के बाद केशी श्रमण ने श्रमणसंघ सहित पांचयाम रूप धर्म को ग्रहण किया। उपर्युक्त वार्तालाप के फलित इस प्रकार हैं: -भगवान महावीर ने जो पांचयाम का उपदेश किया, यह कोई नई बात नहीं थी। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव भी पाँचयाम का उपदेश करते थे। २-पार्श्वनाथ के मुनि ऋजुप्राज्ञ थे अतः मैथुन विरमण याम को वहिर्शदान (परिग्रह) के अन्तर्गत मानने में उनको कठिनाई नहीं होती और चारयाम के धारक होने पर भी मैथुन विरमण को वहिर्शदान विरमण के अन्तर्गत मान व्यवहारतः पाँचों का पालन करते थे। . ३–प्रथम तीर्थङ्कर के मुनि कठिनता से समझते अत: उनके सुखाबोध के लिए सर्व मैथुन विरमण का एक अलग याम के रूप में उपदेश किया गया। चरमै तीर्थङ्कर के मुनियों के लिए पालन करना कठिन था। अत: ब्रह्मचर्य के पालन पर सम्यक् जोर देने के लिए महावीर ने सर्व मैथन विरमण महाव्रत को पुनः पृथक् कर पांचयाम का उपदेश दिया। PARE इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि 'सर्व मैथन विरमण महाव्रत' अर्थात 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' जैन परम्परा में एक सनातन धर्म के रूपमें स्वीकृत रहा-कभी पृथक् महाव्रत के रूप में और कभी वहिदान विरमण महावत के अन्तर्गत व्यवहार धर्म के रूप में। इस बात को ध्यान में रख कर ही कहा गया है- "ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। यह जिन-देशित है। पूर्व में इस धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध हुए हैं, अभी होते हैं और आगे भी होंगे।" ४-आश्रम व्यवस्था और ब्रह्मचर्य का स्थान ___ मनुस्मृति के अनुसार सारे धर्म का मूल वेद हैं—'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्" (२.६)। उसमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास -इन चारों आश्रमों की उत्पत्ति वेद से बताई गई है । पर वेदों में-संहिता और ब्राहाणों में आश्रम शब्द का उल्लेख नहीं मिलता । और न ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के नाम ही मिलते हैं। अत: चतुराश्रम-व्यवस्था वेद-प्रसूत है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वेदों में ब्रह्मचारी और ब्रह्मचर्य शब्द मिलते हैं। शतपथ आदि प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य शब्द उपलब्ध है ५। इससे प्रमाणित होता है कि ब्रह्मचर्य पाश्रम की कल्पना का बीज वेदों में उपलब्ध था। वेदों में "हे वधु ! हम दोनों की सौभाग्य-स्मृद्धि के लिए मैं तुम्हारा पाणि-ग्रहण करता हूँ। मैंने तुम्हें देवताओं से प्रसाद रूप में गार्हपत्य के लिए गृहस्थ-धर्म के पालन के लिए पाया है। ऐसे सूक्त भी पाये जाते हैं जिससे कहा जा सकता है कि गृहस्थ आश्रम की कल्पना का आधार भी वेदों में है। पर वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के बीज वेदों में उपलब्ध नहीं हैं। वेदों के "तुम १-उत्तराध्ययन २३.८७ : एवं तु संसए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे । अभिवन्दित्ता सिरसा गोयमं तु महायर । पंच महव्वयधम्म पडिवज्जइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमंमि मग्गे तत्थ सुहावहे ॥ -उत्तराध्ययन १६.१७ : एसे धम्मे धुवे निच्चे सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण सिज्झिस्सन्ति तहावरे ।। ३-मनुस्मृति १२.६७ : चातुर्वर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् । भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात्प्रसिद्धयति ॥ Be eg ४—(क) ऋग्वेद १०.१०६.५; अथर्ववेद ५.१७.५; तेत्तिरीय संहिता ३.१०. ५ T (ख) अथर्ववेद ११.५.१-२६ ५-शतपथ ब्राह्मण ६.५.४.१२ ६-ऋग्वेद १०.८५.३६ : । गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं... मह्यत्वादुर्गार्हपत्याय देवाः । 1 36937 Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy