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________________ शील की नव बाढ़ पनिषद में प्रथम तीन पाश्रमों का संकेत नोकरी" पति पत्नी के साथ जीवन-पर्यंत अग्निहोत्र करे", "पति पत्नीसह जीवनपर्यन्त दर्श और यागों को करे३" ग्रादि विधानों से स्पष्ट है कि वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की कल्पना के आधार वेद नहीं हैं। उपनिषद् काल में पाश्रम-व्यवस्था का क्रमशः उत्तरोत्तर विकास देखा जाता है। छान्दोग्य उपनिषद में प्रथम तीन साल रूप में वर्णन है। अन्य उपनिषदों में संन्यास-ग्रहण के उल्लेख हैं। जाबालोपनिषद् (४) में चारों आश्रमों का स्पष्ट रूप में नाम-निशा - धर्मसूत्रों के युग में चतुराश्रम-व्यवस्था अच्छी तरह देखी जाती है। प्राचीन-से-प्राचीन धर्मसूत्र में भी चारों पाश्रमों का उल्लेख धिमा का उल्लेख पाया जाता है। 6. उपर्युक्त चार पाश्रमों के ग्रहण की व्यवस्था के सम्बन्ध में छान्दोग्य उपनिषद् में निम्न दो विधान मिलते हैं। : (१) ब्रह्मचर्य को समाप्त कर गृही होना चाहिए। गृहस्थ के बाद वनी-वानप्रस्थ होना चाहिए। वानप्रस्थ के बाद प्रवजित तो. चाहिए। यह समुच्चय पक्ष कहलाता है। -- (२) यदि अन्यथा देखे अर्थात उत्कट वैराग्य हो तो ब्रह्मचर्य से ही संन्यास ग्रहण करे वा गृहस्थाश्रम से वा वानप्रस्थ से संन्यास में गमन करे अथवा जब वैराग्य उत्पन्न हो तभी प्रवजित हो। यह विकल्प पक्ष कहलाता है। - (३) तीसरा मत गौतम और बौधायन जैसे प्राचीन धर्म सूत्रों का है। इनके अनुसार प्राश्रम एक ही है और वह है गृहस्थ आश्रमा ब्रह्मचर्य आश्रम गृहस्थ आश्रम की भूमिका मात्र है। इसे बाध पक्ष कहते हैं । समुच्चय पक्ष के अनुसार पाश्रमों को उनके क्रम से ही ग्रहण किया जा सकता है । बीच के आश्रम को छोड़कर बाद का ग्रहण नहीं किया जा सकता । उदाहरण स्वरूप ब्रह्मचर्य से अथवा गार्हस्थ आश्रम से सीधा संन्यास ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस मत के सम्बन्ध में श्री काने लिखते हैं : “यह मत विवाह अथवा वैवाहिक जीवन (Sexual life) को अपवित्र अथवा संन्यास से निम्नकोटि का नहीं मानता। इतना ही नहीं यह गार्हस्थ्य को संन्यास से उच्च स्थान देता है। समुच्चय रूप से अधिकांश धर्मशास्त्रों का झुकाव गार्हस्थ्य आश्रम की महिमा वढ़ाने तथा वानप्रस्थ और संन्यास को पीछे ढकेलने की ओर रहा है । यह बात यहाँ तक पहुंची है कि कितने ही ग्रंथों में यह उल्लेख आया है कि कलिकाल में वानप्रस्थ और संन्यास वजित हैं।" आपस्तम्ब धर्मसूत्र में पाश्रमों का क्रम इस प्रकार है-"आश्रम चार हैं-- गार्हस्थ्य, आचार्यकुल-वास, मौन और वानप्रस्थ ।" यहाँ 'प्राचार्य कुलवास' ब्रह्मचर्य का द्योतक है और 'मौन' संन्यास का । यहाँ गार्हस्थ्य प्राश्रम को सब आश्रमों से पूर्व रखा है। इसका कारण वही है जो श्री काने ने उल्लिखित किया है। समुच्चय और विकल्प पक्ष की आलोचना करते हुए बौधायन धर्मसूत्र में लिखा है-"प्रह्लाद के पुत्र कपिल ने देवों के प्रति स्पर्धा के कारण पाश्रम-भेदों को खड़ा किया है । मनीषी इन पर ध्यान नहीं देते।" १-ऋग्वेद १०.८५.३६ : गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः २-यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहोति ३-यावज्जीवं दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत् ४-छान्दोग्य उपनिषद् २.२३.१ ५--बृहदारण्यक उपनिषद् ३.५.१; ४.५.२; मुण्डक उपनिषद् १.२.११; ३.२.६ ६-जाबालोपनिषद् ४: ब्रह्मचर्य परिसमाप्य गृही भवेद् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्या - यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वावनाद्वा । यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत् । ७-(क) गौतम धर्मसूत्र ३.१,३५ : तस्याश्रमविकल्पमेके ब्रुवते । ऐकाश्रम्यं त्वाचार्य प्रत्यक्षविधानाद्गार्हस्थ्यस्य (ख) बौधायन धर्मसूत्र २.६.२६ : ऐकाश्रम्यं त्वाचार्य अप्रजननत्वादितरेषाम् । 5-History of Dharmasastra Vol. 11 Part I p. 424 Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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