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________________ शील की नव बाड़ पवलतम साधन के रूप में ग्रहण इस तरह स्पष्ट है कि स्वामीजी ने सम्पूर्ण इन्द्रियों के संयम-विषय के जीतने को ब्रह्मचर्य की रक्षा के प्रबलतम साधन हैकिया है । इस तरह महात्मा गांधी और जैन परिभाषा की व्याख्या शब्दशः एक दूसरे के साथ मिल जाती है । संक्षेप में स्व पर शरीर में प्रवृत्ति का त्याग कर शुद्ध बुद्धि से ब्रह्म में स्व-प्रात्मा में चर्या ब्रह्मचर्य है'। ३-शाश्वत सनातन धर्म, ... भगवान महावीर के ठीक पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ थे। वे सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृपावाद विरमण, सर्व अदत्तादान और सर्व वहिर्दादान (परिग्रह) विरमण-इन चारयामों का प्ररूपण करते थे। भगवान महावीर के समय में भी अनेक पार्श्वपात्य निक साधु वर्तमान थे जो चातुर्याम का पालन और प्रचार करते थे। महावीर ने उपर्युक्त चारयामों में सर्व वहिर्शदान विरमण के पहले सर्व विरमण को और जोड़ दिया और पांचयाम का उपदेश प्रारम्भ किया। उनके निर्ग्रन्थ साधु पाँचयामों का पालन करने लगे। यह एक ही का विषय बन गया। पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार और वर्द्धमान के शिष्य गौतम दोनों ही विद्या और चारित्र में परिपूर्ण थे। इस शंका हो जानकर दोनों अपने-अपने शिष्य समुदाय के साथ तिन्दक बनमें मिले । और दोनों में निम्न वार्तालाप हुमा: Po: केशी ने पूछा : गौतम ! वर्धमान पाँचशिक्षा रूप धर्म का उपदेश करते हैं और पार्श्वनाथ ने चारयाम रूप धर्म का ही उपदेश दिया। एक ही कार्य के लिए प्रवृत्त इन दोनों में भेद होने का क्या कारण ? इस प्रकार धर्म के दो भेद होने पर आपको संशय क्यों नहीं होता?" : RES E ..... ... ..... गौतम बोले:"प्रज्ञा ही धर्म को सम्यक रूप से देखती है। तत्त्व का विनिश्चय प्रज्ञा से होता है। प्रथम तीर्थङ्कर के. मुनि ऋजजड थे और अन्तिम तीर्थङ्कर के मुनि वक्रजड़ हैं। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ थे। इससे धर्म के दो भेद देखे जाते हैं । प्रथम तीर्थङ्कर के मनि कठिनता से धर्म.समझते और अन्तिम जिन के मुनियों के लिए धर्म-पालन कठिन है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों के लिए धर्म समझना और पालन करना सुलभ होता है । अत: प्रथम और चरम तीर्थङ्कर के मार्ग में ब्रह्मचर्य याम का पृथक् प्ररूपण ही सुखावह है।" अन्य तीर्थङ्कर चारयाम का ही प्ररूपण करते हैं।" १--या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचः प्रवत्तिः। तद्ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ॥ २-(क) भगवती २.५: तेणं काले णं ते णं समये णं पासावञ्चिजा थेरा भगवतो...सहुंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुगिया नंगरी......तेणेव उवागच्छंति.....तए गंते थेरा भगवतो तिसं समणोवासयाणं......चाउज्जा धम्म परिकहंति (ख) सूत्रकृताङ्क २.७ : त ए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं...वंदिता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि गं भंते ! तुल्भं अंतिए चाउजमाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उपसंपजित्ता णं विहरित्तए...। ३-उत्तराध्ययन २३.१-१५ : .४.-उत्तराध्ययन २३.२.३-२४ : चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ। 25TH .. : .. देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी॥ एगकजपवन्नाणं विसेसे कि नु कारणं । धम्मे दुविहे मेहावि कहं विप्पच्चओ न ते ॥ -वही २३.२५-२७,८७. ६-स्थानाङ्ग : पच्छिमवजा मज्झिमगा बावीसं अरिहंता भगवंता चाउज्जामं धम्म पगणवेति तं जहां सव्वतो पाणातिवायाओ वेरमणं एवं मुसावा याओ वेरमणं सव्वातो अदिन्नादाणाओ वेरमणं सव्वओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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