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________________ भूविका समें परिणाम परीक्षा सही है, पौड़ता मुक्त महार हा साधु सती हुवा त्यां अणी रे, सेठ याद किया तिण बार ॥ जेहनें जेहवा कर्मज संचिया रे, तेहवा उदे हुवे आय । ८ जिग बोयो पेड़ बंबू को रे, ते अंप कियां थी खाय ॥ तो हूँ कर्म भुगतूं छू मांदरा रे, ते में बांध्या छे स्वयमेव । आम मान להשקיע יות - ****** ६२६ בתוך החברה ורוויץ עד מהווה Pr तो हूँ आमण दुमण होऊ किण कारणे रे, हिये किसो करणो अहमेव ॥ सुदर्शन ने सोचा—“कर्म की गति बड़ी टेढ़ी होती है । कर्मों से बलवान जग में और कोई नहीं है। उन्हें भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं होता। मेरे पिछले कर्मों का उदय हुआा है। मैंने किसी पिछले भव में किसी की चुगली की होगी, किसी पर कलङ्क लगाया होगा, द्विपदचतुष्पदों का छेदन किया होगा श्रथवा वनस्पतिकाय का भेदन अथवा किसी के भात- पानी का विच्छेद किया होगा। मैंने साधु-सन्तों को सन्ताप दिवा होगा या नुपादान दिया होगा। मैंने अपना या दूसरे का शील भंग किया होगा अथवा सामग्री का प्रपमान किया होगा। इसीलिए मैं आज शूली पर चढ़ाया जा रहा हूँ। बड़े-बड़े ऋषि महर्षियों को भी किये का फल भोगना पड़ता है। उन्होंने समभाव से कष्टों को किया। मैं भी उदय में धाये हुए कर्मों को समभाव से लूं। मैंने बबूज बोया तो ग्राम कैसे फलेगा अपने बचे हुए कर्म स्वयं को ही भोगने पड़ते हैं। फिर मैं दुःख क्यों करूं ?" safa Sv sal देवताओं ने मूली को सिहासन के रूप में परिणत कर दिया। सुदर्शन के पीस की महिमा चारों ओर फैल गयी। राजा ने सुदर्शन से अपने अपराध की क्षमा चाही श्रौर बोले : "यह सारा राज्य आपको अर्पित है । आप राज्य करें।" सुदर्शन बोला: "मैंने अभिग्रह लिया या कि यदि मैं उपसर्ग से बच गया तो संयम ग्रहण करूंगा। मेरा उपसर्ग दूर हुमा, भतः धय में संयम ग्रहण करूंगा। प्रभया रानी धीर पंडिता चाय से मैं क्षमत-सामना करता हूँ मुझ से कोई अपराध हुधा हो तो वे जमा करें।" राजा बोले " इन दुष्टाओं ने बड़ा अकार्य किया । । क्षमा : और पंडिता धाय ने तो मेरा उपकार ही किया है। इन्हीं के कारण "बुराई के बदले मलाई करनेवाले जगत में विरले ही होते हैं—एहवा मैं ही इनके प्राण हरण करूंगा।" सुदर्शन बोला: "अभया रानी मेरी कीति हो रही है। अतः प्राप इनकी पात न करें-" राजा बोला ऊपर गुण करे तो विरता से संसार हो साल " : “आज मेरा मनोरथ पूरा हुआ है। इसके बाद सुदर्शन संयम लेने की बाट जोहते हुये रहने लगा। उसकी भावनाएं इस प्रकार रहीं मन-चिन्तित कार्य सिद्ध हुआ है। शील से मेरी लाज बची। मैंने चारों गतियों में भ्रमण किया। कभी जन्म मिला है। जैन धर्म पाया है। बारह प्रकार के तपों का सेवन करूंगा। संशय दूर नहीं हुआ। अब मुझे मनुष्यइस धमूल्य अवसर को पाकर मुझे धर्म का पालन करना चाहिए। मैं पाँचों महावतों को प्रण करूंगा। साधुनों के यहाँ प्राते ही संसार को छोड़ दीक्षा लूंगा ।" मनोरथ पूरो भयो, छ्ण प्राणी रे मन चितव्या सरिया काज, आज 1 प्राणी रे ॥ जग में जस ब्रध्यो घणो, सुण प्राणी रे | म्हारी रही शील सं लाज, आज सुण प्राणी रे ॥ संजम पाले से जीवडा, पाम्यों नहीं भवपार कबटुक नरक निगोद में, कबहु विच मकार कबक इष्ट संजोगियो, कबटुक इष्ट वियोग इस रीते भमत धक, मेयो नहीं भ्रमजाल धर्मता जल करो, अब ऐसो अवसर पाय । धर्म पांच महाबत आदर्श छोडी परियह तास इस भावनां भावतो, मन आयो अति वेराग 1 जामण मरण करतो थको, भमियो ए संसार | कंपडुक घर पर देवता, इम रीते भन्यो संसार ॥ कबहुक भोग भोगल्या, कंदुक अति घणो रोग ॥ अवे अपूर्व पामियो, श्री जिन धर्म रसाछविणा मानवी, गया ते जन्म रामाय ॥.. बारे भेदे तप तयूं, ज्यूं पाहूं शिवपुर बास ॥ जो इहां साधु पधारसी, तो कर संसार नो त्याग आर इसके कुछ दिनों बाद अनेक साधुनों के परिवार के साथ धर्मघोष स्थविर पधारे। सुदर्शन ने उनके हाथ से दीक्षा ग्रहण की। सुदर्शन बड़े तपस्वी मुनि' हुए। गुरु आज्ञा से वे अकेले विहार करने लगे । एक बार विहार करते-करते मुनि सुदर्शन पाटलीपुर नगर पधारे और उसके बाहर बनखण्ड उद्यान में निर्मल ध्यान ध्याते हुए रहने लगे। उस नगर में देवदता वेश्या रहती थी वह उनके रूप पर मोहित हो गई। एक बार मुनि गोचरी करते हुए देवदत्ता के मकान के द्वार Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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