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________________ १३० शील की नव बाइ लिए घर के अन्दर गये। में परोस मुनिवर के सम्मुख विचार कर वे वापिस लौट पर मा पहुंचे। वेश्या ने श्राविका का रूप बनाया और मुनि सुदर्शन से गोचरी की अर्ज करने लगी। मुनि गोचरी के लिए पर है वेश्या बोली-"पाप कुछ विश्राम करें। खेद को दूर कर एकांत में बैठ भोजन करें।" यह कह पट्रस भोजन थाल में परोस मनि घर दिया। उस थाल को देखकर साधु सुदर्शन समझ गये-यह श्राविका नहीं, यह तो कोई कुपात्र नारी है। यह विचार कर परन्तु वेश्या ने सारे द्वार बंद कर दिये थे, जिससे बाहर न जा सके और वापिस चौक में आ गये । अब देवदत्ता ने श्राविक पिस चौक में आ गये । अब देवदत्ता ने श्राविका का वेष छोड़ दिया और सोलह शृङ्गार कर उपस्थित हुई और मुनि को भोग भोगने के लिए प्रार्थना करने लगी। मुनि अंश मात्र भी विचलित नहीं हुए। मुनि को दोनों हाथों से पकड़, अपने महल में ले जा, अपनी शय्या पर बिठा दिया। इस तरह तीन दिन बीत गये, पर मुनि अपने ध्यान लित नहीं हुए। मुनि की इस समय की चित्त-स्थिति को स्वामीजी ने इस प्रकार चित्रित किया है : जेहवो गोलो मेणको, ताप लागां गल जाय । TEST ज्य कायर पुरुष नारी कने, तरत डिगजावे ताय॥ जसो गोलो गार को, ज्यू धमे ज्यू लाल।। ज्यं सूर पुरुष स्त्री कनें, अडिग रहे व्रत झाल ॥S a mad. गार गोला री दीधी ओपमा, साधु सुदर्शन में जिनराय । FOR जिम जिम उपसर्ग उपजे, तिम तिम गाढो थाय ॥ ध्या उपसर्ग उपनो वेश्या तणो. समरयो श्री नवकार । तणो. समरचो श्री नवकार। SEN MAmशियो विजिया पारा . तीन रात दिन लगे, खम्यो धरि पार तीन रात दिन लगे, खम्यो घोर परिपड जाण|MITR317 FE rat Time मा सेंटो यो तिणरा जिनवर किया बखाण || 17 जिस प्रकार मोम का गोला ताप लगने से गल जाता है, उसी प्रकार कायर पुरुष नारी के समीप तुरंत डिग जाता है। जिस प्रकार गार का गोला ज्यों-ज्यों तपाया जाता है वैसे-वैसे लाल होता जाता है, वैसे ही शूर पुरुष स्त्री के समीप अडिग रहता है। भगवान ने सुदर्शन को गार के गोले की उपमा दी है । जसे-जैसे उपसर्ग होते गये शील के प्रति उसकी भावना गाढ़ होती गयी। जब यह वेश्या का उपसर्ग उत्पन्न हमा तो उसने नमस्कार मंत्र का स्मरण किया', चारों शरण ग्रहण किये और सागारी अनशन कर दिया। सुदर्शन ने इस तरह तीन दिन तक परिषद स 357 सुदर्शन को अडिग देख कर वेश्या ने उन्हें तीन दिन के बाद डंडे मार कर घर के बाहर निकाल दिया। मे ले मगर प्रब मुनि ने विचार किया-मैं बहुत बड़े उपसर्ग से बचा हूं। उचित है कि अब में संथारा करूं। जिस तरह वीर पुरुषं संग्राम के मंच पर जाने के लिए आगे-मागे बढ़ता जाता है, उसी तरह मुनि ने श्मशान में जाकर संथारा ठा दिया। इधर अभया रानी मर कर व्यंतरी हुई। उसने मुनि सुदर्शन को देखकर उन्हें डिगाने का विचार किया। वह सोलह शृङ्गार कर उनके सम्मुख उपस्थित हुई, बतीस प्रकार के नाटक दिखाए । और भोग-सेवन की प्रार्थना करने लगी। मुनि शुभ घ्यान घ्याते रहे-"निश्चल मन ने थिर कखो, जाणेक मेरु समान ।" जब मुनि विचलित नहीं हुए तब उसने विकराल रूप बना उष्ण परिषह दिया। मुनि ने तब भी समताभाव रखा। अब उसने पक्षिणी का रूप बनाया और चौच में ठण्डा जल भर-भर कर मुनि पर छिड़कने लगी। इस शीत परिषह में भी मुनि ने सम परिणाम रखे । अब देवता प्रगट हुए। व्यंतरी को भगा कर उपसर्ग दूर किया। nिtiy सुदर्शन भनगार चढ़ते हुए वैराग्य से शुक्ल ध्यान में प्रासीन थे। न वे व्यंतरी पर कुपित हुए और न देवताओं पर प्रसन्न । वे रागद्वेष से दूर रह समभाव में अवस्थित रहे। मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और उसी रात्रि में मोक्ष पहुंचे। उपर्यक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सुदर्शन का जीवन किस तरह उतरोत्तर घोर संघर्ष का जीवन रहा। उनका नाम प्राज भी प्रश्न भी प्रमुख ब्रह्मचारियों में लिया जाता है। ब्रह्मचर्य के मार्ग में साधक को किस तरह तीव्र से तीव्र तर भावना रखनी चाहिए, उसका आदर्श इस अद्भुत चरित्र से प्राप्त होता है। १-जैन-धर्म में नमस्कार-मंत्र को किस तरह रक्षा कवच माना गया है, यह इससे प्रकट है। S Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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