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________________ शील की नव वाड़ --"."जो स्त्री यह चाहती है कि उसकी पवित्रता कभी खतरे में न पड़े, उसे ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है। " "उसे पहले यह खयाल या घमण्ड तो छोड़ ही देना चाहिए कि सती-धर्म या पतिव्रत-धर्म के उसके संस्कार जितने बलवान हैं कि उनके कारण वह किसी पुरुष की ओर आकर्षित होगी ही नहीं। यह संस्कार बड़े महत्त्व के हैं। उनका बल भी बहुत होता है। फिर भी इस बल को इतना महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिये, जिससे कोई स्त्री यह सोचने लगे कि पुरुषों के सहवास या संसर्ग में किसी तरह की मर्यादा का पालन न करने पर भी वह सुरक्षित है। इसलिए यह मानते हुए भी कि इन संस्कारों का बल बहुत बड़ा है, स्थूल मर्यादा के पालन में कभी लापरवाही नहीं करनी चाहिए'।" (३०-९-३४) २४-ब्रह्मचर्य और उपवास महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य के साधनों में उपवास को भी गिनाया है (देखिए पृ० ६३ पेरा ४)। उनके अनुसार इन्द्रिय-दमन के उद्देश्य से इच्छापूर्वक किये हुए उपवास से इन्द्रिय को काबू में लाने में बहुत मदद मिलती है। गीता में कहा है-'निराहार रहनेवाले के विकार दव जाते हैं, पर आत्म-दर्शन के बिना प्रासक्ति नहीं जाती।' महात्मा गांधी इस पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं : "गीता के श्लोक का अर्थ यह नहीं है कि काम को जीतने में निराहार व्रत से कोई सहायता नहीं मिलती। उसका मतलब तो यह है कि निराहार रहते हुए भी कभी थको नहीं और ऐसी दृढ़ता तथा लग्न से ही प्रात्म-दर्शन हो सकता है। वह हो जाने पर प्रासक्ति भी चली जायगी।" ....... प्रश्न हो सकता है कि जिस उपवास को महात्मा गांधी ने अपने अनुभव से ब्रह्मचर्य-पालन का अनिवार्य अङ्ग कहा है, उसको भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए बताये गये नियमों में स्थान क्यों नहीं दिया? इसका क्या कारण है ? यह पहले बताया जा चुका है कि बाड़ों का अर्थ है-ब्रह्मचारी के शील-आचार-व्यवहार की तालिका । उपवास ब्रह्मचारी का प्रति रोज का शील-प्राचार-व्यवहार नहीं। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए उपवास की कम प्रावश्यकता नहीं, पर वह रोज का शील-धर्म नहीं। इसलिए उसका उल्लेख बाड़ों के प्रकरण में नहीं पाया। Sa n char __ ब्रह्मचर्य की साधना करते हुए जब कभी भी प्रावश्यक हो, उपवास करना चाहिए। स्थानाङ्ग में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए माहार छोड़ने की बात का उल्लेख पाया है। _ निशीथ चणि में लिखा है : "यदि निवृत्त प्राहार, निर्बल पाहार, ऊनोदरी मादि से विकार की शान्ति न हो तो उपवास यावत् ण्ट मासिक तप करे। पारण में निर्बल पाहार ले। उस से भी उपशम न हो तो कायोत्सर्ग करें"-"""तह वि ण णाति चउत्यादि-जावछम्मासियं तवं करेति; पारणाए णिब्बलमाहारमाहारेति । जइ उवसमति तो सुंदरं । अह णोवसमति "ताहे" उद्घट्टाणं महंत करेति कायोत्सर्गमित्यर्थः । - इस तरह पाठक देखेंगे कि एक दो दिन के उपवास को ही नहीं, पर षट् मासिक जैसे दीर्घ उपवास को भी ब्रह्मचर्य की उपासना में स्थान है। '. ऐसा उल्लेख भी प्राप्त है कि यदि सारे उपाय कर चुकने के बाद भी ब्रह्मचारी अपने विकारों को शान्त करने में समर्थ न हो, तो वह जीवन भर के लिए पाहार छोड़ दे, पर स्त्री में मन न करे :Byउब्बाहिज्जमाणे गामधम्मेहि अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कुजा अवि उड्ढं ठाणं ठाइज्जा अवि गामाणुगाम दुइजिजा अवि आहारं वच्छिदिज्जा अवि चए इत्थीस मणं । PROPERTIENT S 25 जैन धर्म के अनुसार मनशन बारह तपों में से एक तप है। अवशेष तप इस प्रकार हैं : ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, काय १-स्त्री-पुरुष-मर्यादा (शील की रक्षा) पृ० ४१ amarpa n २-अनीति की राह पर पृ० १३८ . R e ad ३-ठाणाङ्ग सू० ५०० : छहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे आहारं वोच्छिदमाणे णाइकमइ तं० आतंके उवसग्गे तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए पाणिदया तव हेडं सरीखुच्छोयणठाए ४-निशीथसूत्रम् सू० १ भाष्यगाथा ५७४ की चूर्णि Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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