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________________ भूमिका ११५ लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, वयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्यत्सर्ग। जैन धर्म में इन सब तपों को ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक २५-रामनाम और ब्रह्मचर्य मित्रा कुछ 2 महात्मा गांधी ने रामनाम,प्रार्थना, उपासना, ईश्वर में विश्वास-इनको ब्रह्मचर्य-रक्षा की साधना में अनन्य स्थान दिया है । वे लिखते "ब्रह्मचर्य की रक्षा के जो नियम माने जाते हैं, वे तो खेल ही हैं। सच्ची और अमर रक्षा तो रामनाम है।" विषय-वासना को जीतने का रामबाण उपाय तो रामनाम या ऐसा कोई मंत्र है।.."जिसकी जैसी भावना हो, वैसे ही मंत्र का वह जप करे।"""हम जो मंत्र अपन लिए चन, उसमें हमें तल्लीन हो जाना चाहिए।" "जब तुम्हारे विकार तुम पर हावी होना चाहें, तब तुम घुटनों के बल झुक कर भगवान स मदद की प्रार्थना करो।" "विकाररूपी मल की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक जीवन-जड़ी है५" "जो ......ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, वे अपने प्रयत्न के साथ-साथ ईश्वर पर श्रद्धा रखनेवाले होंगे तो उनके निराश होने का कोई कारण नहीं।" गांधीजी के अनुसार राम कहिए अथवा ईश्वर "शुद्ध चैतन्य है।" "वह पहले था, आज भी मौजूद है, आगे भी रहेगा । न कभी पैदा हुआ न किसी ने उसे बनाया"। जैन दर्शन में रामनाम के स्थान में नवकार मंत्र है। नवकार मन्त्र के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह चौदह पूर्व अर्थात् सारे जनबाडमय का सार है। इस मन्त्र के सम्बन्ध में प्राचीन ऋषियों ने कहा है-"यह सर्व पाप का प्रणाश करनेवाला है। सर्व मङ्गलों में प्रधान मङ्गल है।" एसो पंच-नमोक्कारो, सव्व-पाव-प्पणासणो । मंगलाणंच सव्वेसि, पढम हवइ मंगलं ॥ यह नवकार मन्त्र इस प्रकार है : "नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवझायाणं, नमो लोए सव्व-साहणं ।" इस मन्त्र में पहले पद में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है। जिन्होंने प्रात्मा के राग-द्वेष मादि समस्त शत्रुओं का हनन कर इस देह में ही मात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, उन्हें अरिहंत कहते हैं। अरिहंतों के सम्बन्ध में कहा गया है कि वे स्वयं संबुद्ध, पुरुषोत्तम, लोकप्रदीप, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, संयमी जीवन के दाता, बोधिदाता, धर्मसारथी, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन के धारक, जिन, देह होते हुए भी मुक्त एवं सर्वज्ञ होते हैं। वे सारे भय स्थानों को जीत चुके होते हैं। दूसरे पद में सिद्धों को नमस्कार किया जाता है । जो देह से मुक्त हो, जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए छुटकारा पा चुके हैं और मोक्ष को पहुंच चुके हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं । सिद्ध प्रशरीर-"शरीर-रहित होते हैं । वे चैतन्यघन और केवलज्ञान-केवलदर्शन से संयुक्त होते हैं। साकार १–तत्त्वार्थसूत्र ६.१६ भाष्य : (क) अस्मात्पविधादपि बाह्यात्तपसः सङ्गत्यागथरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणकर्मनिर्जरा भवन्ति । (ख) निशीथ भाष्य गाथा ५७४ : . णिवितिगणिब्बले ओमे, तह उद्घटाणमेव उभामे । TEE 2 वेयावच्चा हिंडण, मंडलि कम्पटियाहरणं ॥ २-देखिए पीछे पृ० ६७STMEEN71- 0 7 THREE ३-ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० १०३ को ४-रामनाम पृ० ६ ५-गांधी वाणी पू०७४- Aadha a r ६-देखिए पीछे पृ० १३ T ATE रामनाम पृ० २३ FEE हा पृ०२२ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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