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________________ मी ११३ " ६--''.''स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध में एकान्त, शरीर स्पर्श (सजातीय या विजातीय नौजवानों या किशोरों का एक-दूसरे से लिपटना, एक दूसरेपर रिना या दूसरी तरह से लाइमरे नखरे करना) काम को भड़कानेवाले दृश्यों, नाटकों, पुस्तकों, संगीत यादि में साथ-साथ भाग लेना, भाईबहन मां-बाप जैसे कौटुम्बिक संबंध न होने पर भी सम्बन्ध कायम करने की बात मन को समझाकर, सगे भाई-बहन और मां-बाप के साथ भी न किये हों, ऐसे लाड या घनिष्ठता ( intimacy ) की छूट लेना -- शादि मलिनता या खतरे के स्थान माने जा सकते हैं। यदि ऐसा आग्रह न रहे कि चाप द्वारा भी उनके साथ के व्यवहार में भी प्रमुक स्वतंत्रता तो कभी ली ही नहीं जा सकती; हमारा शरीर एक पवित्र तीर्थ ( गंगाजल या मंत्रपूत जल ) या पवित्र भूमि है और श्रापद्धर्म के सिवा जैसे पवित्र तीर्थ या क्षेत्र को थूक, मल-मूत्र या पवि के स्पर्श से अपवित्र नहीं किया जा सकता या पवित्र बनकर ही स्पर्श किया जा सकता है, से ही अपने दशरीर को भी जिसके साथ विवाह-सम्बन्ध बांधा हो ऐसे पति या पत्नी के सिवा - पवित्र रखने का श्राग्रह न हो; और विषय भोग की तीव्र इच्छा होते हुए भी किसी कारण से विवाह करने का साहस न होता हो, तो कभी न कभी, युवावस्था बीत जाने पर भी मन के मलिन होने का डर बना रहता है' ।' ( १४-१-१४५ ) ७ म्रास में कोई नाता-रिश्ता न रखनेवाले स्त्री-पुरुषों के बीच कभी-कभी एक दूसरे के "धर्म के भाई-बहन" का सम्बन्ध बांधने का रिवाज पुराने समय से बता पाया है।...... ऐसे नाते पवित्र बुद्धि से जोड़े जाते हैं और कुलीनता के खयाल से धन्त तक निमाये जाते हैं। इनमें स्त्री-पुरुष मर्यादा के नियमों को शिथिल करने का जरा भी इरादा नहीं होता हो भी नहीं सकता क्योंकि मर्यादा के जो नियम बताये गये हैं, वे वही हैं, जिन्हें सगे भाई बहन मां बेटे वा बाप-बेटी के बीच भी पालना जरूरी होता है। T भूमिका "परन्तु कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि मर्यादा के पालन में पैदा हुई शिथिलता का बचाव करने के लिए भी ऐसा सम्बन्ध बताया जाता है। दो एकसी युवाले स्त्री-पुरुष के बीच मैत्री होती है और उसमें से वे छूट से एक-दूसरे के साथ हिलने-मिलने लगते हैं। यह छूट समाज को खटकती है, या घटने का उन्हें डर लगता है। यह छूट उचित नहीं होती, फिर भी दोनों उसे छोड़ना नहीं चाहते। ऐसे मौके Bryn पर धर्म के भाई-बहन होने की दलील दी जाती है। TRBIC P "सच पूछा जाय तो ऐसी स्थिति में यह दलील केवल बहाना ही होती है। क्योंकि वे अपने सगे भाई-बहन के साथ या सगे लड़के-लड़की जैसा 'छूट का व्यवहार नहीं रखते, वैसा व्यवहार इन माने हुऐ भाई-बहन, मां-बेटे या बाप-बेटी के साथ रखते हैं । के साथ "धर्म का नाता जोड़नेवाले को यह सोचना चाहिये कि यह नाता धर्म के नाम पर जोड़ना है। अर्थात् उसमें परमार्थ की, पवित्रता की, कुलीनता की, गंभीरता की बुद्धि होनी चाहिए। यह संबंध एकांत में गप्पे मारने की, साथ में घूमने-फिरने की, पीठ या सिर पर हाथ रखते रहने की, एक-दूसरे के साथ सटकर बैठने की या कारण-अकारण किसी न किसी बहाने से एक दूसरे को स्पर्श करने की छूट लेने के लिए नहीं होना चाहिये। यह एक दूसरे की प्रावरू रखने और बढ़ाने के लिए होना चाहिये, और समाज में उसका ऐसा परिणाम माना ही चाहिये । उसमें निन्दा के लिये कोई गुंजाइश ही नहीं आनी चाहिये ।" ( मई १९४५ ) 9 कमी शिवार 17 ८ – ८...... एक-दूसरे की सहायता करने में शरीर का स्पर्श, एकांत वास श्रादि की संभावना रहती ही है । "उनका धीरे-धीरे बढ़नेवाला परिचय स्त्री-पुरुष मर्यादा के नियमों का पालन ढीला करा देता है । दोनों एक दूसरे को भाई-बहन या 'धर्म के भाई-बहन' कहते हैं, परन्तु सगे भाई-बहिन के बीच भी न पाई जानेवाली निकटता और निःसंकोचता अनुभव करते हैं। उनके उठने-बैठने, बातचीत करने वगैरह में शिष्टाचार जैसी कोई चीज नहीं रह जाती। यह व्यवहार आसपास के लोगों की निगाह में आता है ! उन्हें इसमें सच्ची या झूठी विकार की शंका होती हैं । मनुष्य-स्वभाव के अनुसार वे अपनी शंका मुंह पर जाहिर नहीं करते या उस व्यवहार के बारे में रुचि अरुचि शुरू में ही प्रकट नहीं करते। लेकिन अन्दर ही अन्दर उनकी निन्दा करते हैं और लोगों में बातें फैलाते हैं । अन्त में वे दोनों वितरूप में अपनी निन्दा होती अनुभव करते हैं । विवाहित या अविवाहित दोनों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि शुद्ध व्यवहार का विश्वास उचित मर्यादाओं के पालन से ही कराया जा सकता है, मनमाने व्यवहार से नहीं जो लोग मर्यादा पालन में विश्वास नहीं रखते, वे खुद ही लोक निन्दा को प्रोत्साहन देते हैं। उन्हें लोक-निन्दा से चिढ़ने पर गुस्सा करने का कोई अधिकार नहीं है।" ( मई १९४५) १-स्त्री-पुरुष-मर्यादा ( संस्थाओं का अनुशासन ) ० १६५-१६६ २ - वही ( धर्म के भाई - बहन ) पृ० १६७ - १६८ बुढ़ापे में विवाह) पृ० १७०-१७३ topn vo 38 wr पवित Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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