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________________ ११२ शील की नव बाड़ किया गया विषय-भोग निर्दोप है। यह तो वैसा ही होगा जैसे यह कहना कि आमतौर पर 'केन्सर' ३५-४० की उम्र के बाद होता है, इसलिए इस उम्र तक यह रोग उत्पन्न करनेवाली चीजें छूट से खाई जा सकती हैं।" (२१-१०-३४) ५-"हिसा न करनी जंतकी, परत्रिया संगको त्याग ; मांस न खावत, मद्य को पीवत नहीं बड़भाग। विधवा को स्पर्शत नहीं, करत न आत्मघात ; चोरी न करनी काहुकी, कलंक न कोउको लगात । निन्दत नहीं कोउ देवको, बिन खपतो नहीं खात ; विमुख जीव के बदन से कथा सनी नहीं जात । यह विधि धर्म सह नियम में, वर्ते सब हरिदास; भजे श्री सहजानन्द प्रभु, छोड़ी और सब आस । रही एकादश नियम में करो श्रीहरिपद प्रीत ; प्रेमानन्द के धाम में, जाओ निःशंक जग जीत ।" "-यह स्वामिनारायण-संप्रदाय की सायं-प्रार्थना के नित्य पाठ का एक हिस्सा है। मेरे पिताजी जीवन में इसे अक्षरशः पालने और और दूसरों से पलवाने का आग्रह रखते थे। बम्बई शहर में रहकर भी वे स्वयं इन नियमों का इतनी सख्ती से पालन करते थे कि भुलेश्वर तीसरे भोइवाड़े के संकड़े और भीड़-भड़क्केवाले रास्तों पर भी किसी विधवा का स्पर्श न हो जाय, इसका ध्यान रखते थे। और कभी स्पर्श हो जाता, तो एक बार का उपवास कर लेते थे। "एकान्त से बचने के बारे में उन्होंने हमें जो शिक्षा दी थी, उसका एक किस्सा यहाँ कह दूं। एक बार मेरी छोटी बहन (१२-१३ साल की) एक कमरे में कंघी कर रही थी। उस बीच कोई परिचित गृहस्थ उस कमरे में दाखिल हुए। कमरा खुला था। उसकी बनावट ऐसी थी कि पाते-जाते किसी की भी नजर अन्दर पड़ जाती थी। मेरी बहन उनके आने पर कमरे से उठकर चली नहीं गई और कंघी करती रही। मेरे पिताजी ने दूसरे कमरे में से यह सब देखा । उन्होंने बहन को पास बुलाकर 'मात्रा स्वस्रा दुहिता वा सहजानन्द स्वामी की आज्ञा समझाई। फिर कहा कि इस प्राज्ञा का भङ्ग हुआ है, इसलिए प्रायश्चित्त के रूप में तुम्हें एक दिन का उपवास करना चाहिए। .... "स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध' नाम के मेरे लेख पर कुछ नवयुवक और प्रौढ़ युवक भी चिढ़ गये थे..... 'जो मर्यादा-धर्म में विश्वास रखते हैं, उन में से भी कुछ को ऐसा लगेगा कि मेरे पिता का यह बरताव मर्यादा की भी मर्यादा को लांघ गया था। कुछ यह भी कहेंगे कि इस तरह पाला गया सदाचार वास्तव में सदाचार ही नहीं है ; इस तरह पाला गया ब्रह्मचर्य वास्तव में ब्रह्मचर्य ही नहीं है। लेकिन यह राय भी कोई नई नहीं है। स्थल नियम-पालन का यह विरोध स्मृतियों जितना ही पुराना है। . ... ... ............"एक बार एक वैरागी साधु ने सहजानन्द स्वामी के साथ चर्चा करते हुए कहा : "स्वामिनारायण, आपने सब कुछ तो अच्छा किया, लेकिन एक बात बहुत बुरी की। प्रापने स्त्री-पुरुष के अलग-अलग बाड़े बनाकर ब्रह्म में भेद डाल दिया।" सहजानन्द स्वामी ने उत्तर दिया : "बाबाजी, यह भेद कोई रहनेवाला थोड़े ही है। मैं एक विशेष घिनवाला मागया हूं, इसलिए मैंने यह भेद कर डाला है। मेरी थोड़ी-बहुत घिन इन लोगों (शिष्यों) को लगी है। वह जब तक टिकेगी, तब तक यह भेद रहेगा। फिर तो आपका ब्रह्म पुनः एक ही हो जाने वाला है।" ................ये कड़े नियम संसारी समाज के लिए न तो बनाये गये और न सोचे गये थे। परन्तु यदि नियमों को धिन' का नाम दिया जाय, तो कहा जा सकता है कि संसारी समाज में भी कुछ मर्यादारूपी घिन की छूत उन्होंने जरूर लगाई थी। यह छत मेरे पिताजी को विरासत में मिली थी। उन्होंने विचारपूर्वक उसका पोषण किया था और हमें भी वह छूत लगाने की कोशिश की थी। मेरी शक्ति के अनुसार मझमें यह घिन' टिकी रही है और मैं मानता हूं कि उसके टिके रहने में मेरा अपना और समाज का हित ही हमा है।.. "घिन' शब्द का उपयोग तो सहजानन्द स्वामी ने व्याजोक्ति से किया था। सच पूछा जाय तो उनके मन में स्त्री-जाति के लिए कभी अनादर नहीं रहा। इतना ही नहीं, वे व्यक्तिगत रूप में स्त्रियों के साथ कभी घृणा का बरताव नहीं करते थे। और स्त्रियों की उन्नति के लिए उन्होंने ऐसी बहुत-सी प्रवृत्तियां चलाई और संस्थाएं कायम की थीं, जिन्हें उस जमाने की दृष्टि से नवीन कहा जा सकता था।" (जनवरी; १९३७) १-स्त्री-पुरुष मर्यादा (अभी इतना ही) पृ० ४६-४८ २-स्त्री-पुरुष-मर्यादा (प्रस्तावना) पृ० ४-६ - Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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