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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात चौदहवीं सदी [ ८९ तिम करिवउं जिम नवि छीपीइ, चिरकालिइ निरमल दीपीइ ॥ १ जिण द्रवि वाघइ बह संसार, प्रोछइ कुलि लाभइ अवतार । नरय तणी गति छेप्रण बहु, तउ टालेज्यो जिण द्रवि सहू ।।२ अन्त-सोम सूदर सरि तणइ पसाइ, अलिप्र विधन सवि दरिं जाई कीधी चउपई पणयालीस, जिण चउवीसह नाम उसीस ॥४५ इति देव द्रव्य परिहार चउपइ समाप्ता । . संवत् १५४२ वर्षे का. व. १२ दिने श्रीमति कर्करी नगरे पूज्य पं. शुभवीर गणि पाद शिष्य प. अभय कल्याण गणि तिलक वल्लभ गणिभिलेखि श्रीऽस्तु [प्र. जैन सत्य प्रकाश क्रमाङ्क ११६] वि. सोमसुन्दरी सूरि स्वर्ग सं. १४६६ (१२१) अज्ञात (१४२) मृगा पुत्र कुलक मा० ४० प्रादि-नमवि सिरि वीर जिण, जणिय जण सिव सुदो। कम्मवण गहण, निद्दहण जो हम वहो । भाषिसु भावेण भव भयह भंजण परे । मिआ पुत्तस्स मुणिनाह चार बरं ॥१ .. अन्त-तिज़ग समचित्त सिरि वरह सुपवितयं । मिआ पुत्तस्स जे भणइ सु चरितयं । .. विवुह विमाण विलसेइ विवहप्परे। लहइ सुह सत्त रज्जाण ते उप्परे ॥४. इति मृगापुत्र कुलकं समाप्तमिति । For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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