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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९० ] मरू-गूर्जर जैन कवि सं. १७ वीं पं. दया कमल मुनि लिखित श्राविक सूजां पठनाथं प्रति -पत्र २ पं. १३ : . ५२ . वि. रचना की भाषा व शैली से यह १४-१५ वीं शती की लगती हैं। (१२२) जयशेखर सूरि शिक (१४३) उपधान सन्धि गा० २५ प्रादि-फल वद्धिय महणु दुह सय खंडणु, पास जिणि (द) नमेवि करि। . जिण धम्म पहाणहं तवु उवहाणहं, संधि मुणहु जण कन्नु धरि ॥१ सिरि चरम जिणेसर वद्ध माणि, पमणिउ जह गोयम महुर वाणि । सिद्धत मज्झि जसु पढ़म लीह, तसु भणिउ पमाणु महानिसीह ॥२ जह गिम्हि मेरू गह गहण चदु, निवईण चक्कि सुर गणि सुरिंदु । तह वीर जिणेसरि तव पहाणु, उवहाणु भणिउ गुण गण निहाणु ॥३ जे निम्मन वयण जण सीलवंत, सम्मत कलिय तह पुन्नवंत । नीरोग देह ढढ धम्म गेह, तव सत्ति जुत्त परिचत्त गेह ॥४ एवं विह सावय सावियाय, उवहाण वहहिं कय भावि भाय । साहज्जिण वियय कुडवयस्स, सामग्गि सुगुरू निम्मल वयस्स ।।५ अन्त–जन्मतरि तुहुं हम सुलह बोहि, भव भण पाव किय तइ विसोहि । अह संघ चउम्विह वास लेवि, त धन्नु सुलक्खणु भणि खिवेइ ।।२२ सग्गंध कुसुम वा माल ताम, तस बंधु ठवेई कठि जाम । वज्जति गहिर तं पंच सद्दि, नच्चहिं अनुगायहिं प्रइ सु सद्दि ॥२३ उवहाण पवरू तव इम करेड. निय पण त जीविय फल गहेवि । For Private and Personal Use Only
SR No.034112
Book TitleJain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Original Sutra AuthorAgarchand Nahta
Author
PublisherAbhay Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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