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________________ वचन-साहित्य-परिचय है, वैसे भिन्न-भिन्न संप्रदायोंके मूल में, अथवा भिन्न-भिन्न उपासना-पद्धतिके मूल में जो तत्व रहता है वह एक ही रहता है । जैसे एक धागा अनेक रंग-रूपके फूलोंको एकसाथ पिरो देता है वैसे ही वह तत्व भिन्न-भिन्न संप्रदायके लोगोंको, अथवा समग्न मानव-कुलको बंधुत्वके सूत्रमें पिरो देता है । जैसे भक्ति है । संसारके इस छोरसे उस छोर तक भक्तिभाव एक है। वह समन मानव-कुलमें सर्वत्र समान रूपसे विद्यमान है, किन्तु उसका बाहरी रूप कितना भिन्न है ! इस बाह्य भिन्नताके अंदर जो एकता निहित है वह मानव-कुलकी संपत्ति है, किसी संप्रदाय विशेषकी थाती नहीं। वही संपत्ति मानवी जीवनके सामूहिक देवीकरणका प्रेरणा-स्रोत होती है। वचनामृतमें जो ५६४ वचन हैं वही वचन-साहित्य नहीं है । वे वचन-साहित्य सागरके कुछ बिंदु हैं। इन वचनोंका संकलन एक विशिष्ट दृष्टिकोणसे किया है । यह संकलन न तो सांप्रदायिक दृष्टिकोणसे किया है न किसी संप्रदायके लोगोंके लिए किया है । यह पुस्तक सर्वसामान्य लोगोंके लिए लिखी गयी है। सर्वसामान्य लोग कन्नड़ वचन-साहित्यको समझ सकें, उससे प्रेरणा ले सके, इस लिए लिखी गयी है। इसलिए इस पुस्तकमें सांप्रदायिक भाषाका प्रयोग नहीं किया गया है । संप्रदायातीत तात्विक वचनोंका संकलन किया है । फिरभी, वीर संप्रदायके तत्त्वको अथवा षट्स्थल संप्रदायको, जो वचन-साहित्यका कलेवर है, नहीं छोड़ा जा सकता था। इसलिए उस विषय पर अलग अध्याय लिखा गया है। उसके विवेचनमें भी अधिकतर पारिभाषिक शब्द वही लिए गये हैं जो समग्न भारतीय समाजके लिए परिचित हैं । अर्थात् वेदांत तथा सांस्यकी परिभाषाको अपनाया है। वैसे ही कोई भी वचन कब, किससे, किसलिए कहा गया था प्रादिका विचार करके नहीं चुना गया है। वचनकारोंकी कीर्तिका भी विचारन करके केवल विषयकी अभिव्यंजनाका विचार किया गया है । उसी प्रकार जिन वचनोंमें सत्यज्ञानको स्फूर्त पाया गया उनका चुनाव किया गया है। किसी बचनमेंसे सत्य प्रस्फुटित होता है या नहीं यह जान सकते हैं, किंतु स्फूतिके विपयमें ऐसा कैसे कहें ? फिरभी, किसी काव्यको देखकर अालोचक जान ही जाते हैं कि यह स्फूर्तकाव्य है, क्योंकि स्फूर्त-काव्यके कुछ लक्षण होते हैं। यहां भी उन्हीं लक्षणोंका उपयोग किया गया है तथा विषयके स्पष्ट विवेचनकी ओर ध्यान दिया है। सूत्रात्मकताका और स्वाभाविकताका भी ध्यान रखा गया है। अर्थात् वचनोंका चुनाव करते समय लक्ष्य यह रहा है कि इन वचनों के अध्ययनसे वचनकारोंके पवनका संपूर्ण ज्ञान हो। वचनसाहित्यके सार-ग्रहण में, रस-पहरणमें सहायता मिले तथा वचन-नाहित्यके मूल तत्वको समझने में सुविधा हो. इसी दृपिसे वचनों का पृथक्करण, विवेचन तथा उन पर विस्तृत टिप्पणियाँ भी दी हैं ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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