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________________ वचन-साहित्य का सार-सर्वस्व वचनकारोंके विशुद्ध हृदयका स्वानुभव ही वचन-साहित्य है। मानों वह उनके जीवनका सत्व और स्वत्व हो । ठीक वैसे ही जैसे उपनिषद् उपनिषदकारोंके जीवनका निचोड़ है। उपनिषद् किसी भी भाषा-कुल अथवा संप्रदायका शास्त्र नहीं है। वह मानव-कुलकी संपत्ति है । वैसे ही वचन-साहित्य भी मानव-कुलकी संपत्ति है। वचन-साहित्यमें केवल वीरशैव संप्रदायके लिए आवश्यक उपासनात्मक विधिनिषेध ही नहीं है। उसमें समग्र मानव-कुलके लिए जो सामूहिक रूपसे दिव्यत्व की ओर अग्रसर हुआ है, उद्बोधन भी है । उसमें उनके लिए आवश्यक प्रेरणा के स्रोत हैं । उस ओर पथ-प्रदर्शनका प्रयास भी है, और वही वचन-साहित्यका सार-सर्वस्व है । वचनकारोंका उपासनात्मक उपदेश वीरशैवदीक्षारत वीरशैवों के लिए है ही, साथ-साथ वह सर्व-सामान्य जनताके लिए भी है। जैसे गाय जो दूध देती है वह उसके बछड़ेके लिए तो है ही, साथ ही वह दूध और लोगोंकी तुष्टि-पुष्टि भी करता है। कोई भी संप्रदाय तभी संप्रदाय वनता है और हजारों साल तक टिक सकता है जब उसके पीछे अथवा उसकी नींवमें कोई सनातन तत्त्व अथवा शक्ति होती है, सत्य होता है। और साहित्य उस शक्ति अथवा सत्य-तत्त्वका प्रकाश है । कन्नड़ वचन-साहित्य सदियोंसे लाखों लोगोंके जीवनमें आध्यात्मिक चेतना और प्रेरणाका स्रोत बना हुआ है। लाखों लोगोंने उससे प्रकाश पाया है। वह प्रकाश किस शक्तिका है ? किस शक्तिने उसको ऐसा अमर बना दिया है ? इसका विचार करना है । वचन-साहित्यमें चार प्रकारकी बातें हैं-(१) सांप्रदायिक, (२) तात्त्विक, (३) धार्मिक, (४) नैतिक । सांप्रदायिकका अर्थ है उपासना-पद्धतिका विवेचन करनेवाली बातें, जिनका विवेचन पिछले अध्यायमें किया गया है। तात्विकका अर्थ जीव, शिव तथा जगतका संबंध क्या है, तथा जीव शिवत्व कैसे प्राप्त कर सकता है ? आदिका विवेचन है । इसीको और सूत्रात्मक भाषामें कहना हो तो उसे मोक्ष और उसको प्राप्त करनेकी साधना-विषयक बातें कह सकते हैं । धार्मिकका अर्थ है व्यक्तिगत तथा सामूहिक अभ्युदय और निःश्रेयसकी साधना, तथा नैतिकका अर्थ है व्यक्ति और समाजका संबंध बनानेवाली वातें। कन्नड़ वचन-साहित्यमें जीवन के इन सब पहलुओंका विचार किया गया है। पिछले अध्यायमें सांप्रदायिक बातोंका विवेचन किया गया है । इस अध्यायमें वचनकारोंका साध्य तथा उनकी साधना-विषयक बातोंका विचार किया जाएगा। किसी भी तत्त्वका वाह्यरूप संप्रदाय है । संप्रदाय किसी तत्त्व अथवा धर्मका शरीर मात्र है । भिन्न-भिन्न आकार-प्रकारके शरीरमें जैसे एक ही प्रात्मा रहती
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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