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________________ वचन-साहित्यका सार-सर्वस्व ८७ वचन-साहित्य वचन शैली में कहा गया अध्यात्म-शास्त्र है । अध्यात्म शास्त्रका अर्थ आत्मा, अथवा विश्वके मूल तत्वसे संबंध रखनेवाला शास्त्र है। इस शास्त्रका विषय होता है विश्वके आत्यंतिक मूल तत्वकी खोज, उसका यथार्थ रूप जाननेका प्रयास । सवको दिखाई देनेवाला, और क्षण-क्षण बदलने वाला यह विश्व क्यों पैदा हुआ ? कैसे पैदा हुआ ? किस क्रमसे पैदा हुआ ? हमारा जीव क्यों और कहांसे तथा कैसे आया ? इसका स्वरूप क्या है ? इसका साध्य क्या है ? इस साध्यको किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है ? इस साध्यको प्राप्त करनेमें कौन-कौनसी बाधाएँ हैं ? उन्हें कैसे दूर करना चाहिए ? इन सब प्रश्नोंका उत्तर देना अध्यात्मशास्त्रका काम है । अर्थात् ज्ञाता, ज्ञान और शेयका अथवा ध्याता, ध्यान और ध्येयका, अथवा जीव, शिव और जगतका क्या संबंध है ? इसका विवेचन, विश्लेषण करके आवश्यक निर्णय करनेवाले शास्त्रको अध्यात्म-शास्त्र कहते हैं । वचन-शास्त्रमें इन सबका विवेचन हुआ है । वचनामृतमें इन सब विषयोंको स्पष्ट करनेवाले वचनोंका चुनाव किया गया है । __हमारे कान, हमारी आँखें, नाक, जिह्वा तथा त्वचा, इनको ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। जिस विश्वको हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से जानते हैं, वह विश्व क्षरणक्षण में अपना रंग बदलता है। इस बदलनेवाले, अर्थात् परिवर्तनशील विश्वके मूलमें अथवा इसके परे एक तत्व है। वह तत्व अपरिवर्तनीय है । कभी वह अपना रंग-रूप नहीं बदलता । उस तत्वको सत्य कहते हैं । उसका वर्णन करना असंभव है। क्योंकि वह भापाकी मर्यादाके अन्दर नहीं आता। फिरभी वचनकारोंने विरोधाभासात्मक शैलीमें उसका वर्णन करनेका प्रयास किया है । जिस वातका उन्होंने अनुभव किया उसको दूसरोंको समझानेके लिए ऐसा करना आवश्यक था । यह वर्णन यथार्थ वर्णन नहीं है। किंतु संकेत भर है । निर्देशात्मक है । वस्तुतः यह अनुभव करनेका विषय है। कहने-सुननेका नहीं । वचनकारोंने कहा है यह तत्व कार्य-कारण, इह-पर, प्रादि-अनादि, पुण्य-पाप, सुखदुःख, अन्दर-बाहर, ऊपर-नीचे श्रादि द्वंद्वोंसे परे । यह विश्वके प्रारंभ होनेसे पहले था। वह अखंड है । अद्वय है। स्वयंभू है । स्वतंत्र है । निरालंब है । नाम-रूप-क्रियातीत है । वेद भी उसका वर्णन नहीं कर सकते। उस तत्वको हृदयसे अनुभव किया जा सकता है। उसको अांखोंसे नहीं देखा जा सकता। वह सच्चिदानन्द नित्य परिपूर्ण है । सत् और नित्यका अर्थ है सदैव रहनेवाला अर्थात् चिरंतन । चित्का अर्थ ज्ञानस्वरूप है । अानंदका अर्थ दुखातीत है । यदा प्रसन्न है । इस सत्य तत्वको वचनकारोंने ‘पर शिव' भी कहा है। यह पुरुषवाचक शब्द है । यह दो प्रकारका वर्णन परस्पर विरोधी नहीं है । सत्य और मिया भी नहीं है । प्रांखोंमे देखकर तथा नाकसे सूंघकर किया हुआ
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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