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________________ वचन-साहित्य-परिचय उन सबको उन्होंने अलग ही रखा होगा। उसी प्रकार उपनिपद्के निर्गुण ब्रह्म की उपासना सबके लिए संभव नहीं थी। तब वैदिक मर्यादाके अन्दर रहकर, 'बिना किसी भेद-भावके वैदिक प्राचार तथा प्रादर्शको सर्व-सुलभ वनानेकी दृष्टिसे सगुणोपासनाके साधन मार्गका प्रचलन हुआ होगा। यही आगमोंका उद्देश्य दीखता है अर्थात् भगवानकी सगुण भक्ति अथवा सगुगा उपासना द्वार उपनिषद्के सर्वोच्च आदर्श मुक्तिको प्राप्त करने की साधना बताना ही भागमोंका उद्देश्य है। श्री नरसिंह चिंतामण केलकर जीने अपनी एक पुस्तकमें लिखा है, "नानात्वमें (अनेकतामें) एकताका अनुभव करना ही ज्ञान है और एकमें अनेकत्वको देखना विज्ञान ।" आगमान्तर्गत आदर्श की एकता ज्ञान है और साधना-भिन्नता • उस ज्ञानको प्राप्त करने के लिए किये जानेवाले वैज्ञानिक प्रयोग । 'एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति' इस श्रुति-वचनके अनुसार उस एक मात्र सत्को,जो वेद और उपनिपदोंमें वर्णित है, अनेक प्रकारसे प्राप्त करनेका साधना-चक्र आगमों में कहा है। इसलिए अनेक प्रकारके साधना क्रमको बतानेवाले अनेक आगमोंमें जो एकसूत्रता पाई जाती है, वह आश्चर्यजनक है । साध्यकी एकता रहने पर भी साधनात्मक अथवा उपासनात्मक अनेकता भारतीय प्राध्यात्मिक 'परंपराकी विशेषता रही है। टकसाली साधना अथवा उपासनासे सामूहिक जीवन में सैनिक अथवा यांत्रिक समानता लानेका प्रयास हमारे यहां नहीं हुआ। बहुविध इष्ट देवता और वहुविध उपासनाके कारण अनेक आगम वने । सामान्यतः शाक्त और शैवानुगम अद्वैतानुकूल हैं तो वैष्णव आगम द्वैतानुकूल । फिर भी वह गहराईमें जाकर केवल तत्व-चर्चा ही नहीं करते। तत्वको वह स्वीकार मात्र करते हैं और अपनी साधना-पद्धतिका सविस्तार विवेचन । उनकी प्टिसे मुक्ति सुनिश्चित प्राप्तव्य है । वह पूर्व निश्चित है ही। उसमें संशयका यत्किंचित स्थान है ही नहीं । वह त्रिकालाबाधित सत्य है । उसके लिए आवश्यक साधना वताना आगमकारोंका काम है। यह सव आगमोंकी भूमिका रही है । इसी भूमिका परसे आगमोंमें सगुण उपासना, गुरु कारुण्य, गुरुपूजा, दीक्षा, जाप, अष्टविध अर्चना, पोडशोपचार-पूजा, न्यास, चक्र, तीर्थ-प्रसाद-ग्रहण आदिके लिए समान महत्त्व दिया है । वहां सबके लिए समान अधिकार हैं, चाहे स्त्री हो या पुरुष, ब्राह्मण हो या चांडाल, विद्वान हो या अनपढ़, गोपाल हो या भूपाल, बालक हो या वृद्ध, सबके लिए भगवान के दरबारमें समान स्थान है। मुक्ति मंदिर में सबके लिए मुक्त-द्वार है। प्रागममें ऐसा कोई प्रादर्श नहीं है १. भारतीय दर्शन। . . .. .
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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