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________________ साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल-शास्त्र वैष्णव आगमोंको 'पंचरात्रागम' कहने की परिपाटी है। मद्राससे 'थियासॉफिस्ट' नामसे एक अंग्रेजी मासिकपत्र निकलता है। उसके तेरहवें वर्षकी पत्रिकामें पं० अनन्तशास्त्रीने पागमोंके विषयमें विस्तारपूर्वक विचार किया है । आपने लिखा है कि वैष्णव यागम अथवा पंचरात्रागम १०८ हैं । शाक्त तंत्र ६४ हैं । सम्मोहन तंत्रके छठवें अध्यायमें भी लिखा है कि शाक्त तंत्र ६४ हैं और उसके उपतंत्र ३२७. हैं। वैसे ही शिवागम २२ हैं। उसके उपागम १२७ हैं । पंचरात्रागम ७५ हैं । उसके उपागम २०५ हैं। इसके अलावा भी भिन्न-भिन्न मतकी यामल, दामल आदि संहिताएँ अलग हैं । इसके अतिरिक्त गाणपत्य, सौर, बौद्ध, पाशुपत, जैन, कापालिक आदि अन्य अनेक आगम हैं। उन सबके पुराण भी हैं । किंतु वह सब आज न उपलब्ध हैं न इस पुस्तकके विषयसे उनका कोई सम्बन्ध है। किंतु आगम साहित्य के विस्तारकी कल्पनाके लिए तथा भारतीय साधना-शास्त्रमें इन सब अागमोंके स्थानकी कल्पनाके लिए यह लिखना आवश्यक समझा गया। इसके साय यह भी लिखना आवश्यक है कि इन आगमों में कुछ वैदिक और कुछ अवैदिक माने जाते हैं। अवैदिक माने जानेवाले पागम भी वेद और उपनिपदोंमें प्रतिपादित मुक्तिको अपना अन्तिम साध्य होना स्वीकार करते हैं । किंतु उनके मत-भेदका सारा प्राधार साधनात्मक है । आखिर कौन-से आगम वैदिक. हैं पीर कौन-से अवैदिक, यह निर्णय कौन करे ? सामान्यतया नीति-विरुद्ध याचार अथवा वामाचारका प्रतिपादन करनेवाले तंत्र अवैदिक तन्त्र कहे जाते हैं और नीतियुक्त उच्च प्राचार-विचारका प्रतिपादन करनेवाले तन्त्र वैदिक । इसके अतिरिक्त और कौन-सी कसोटी मानी जाय ? ___इस पुस्तकके विषयसे संबंधित शैवागम वैदिक माने जाते हैं। उन शवागमोंके विषयमें अधिक विचार करनेसे पहले हमें विचार करना चाहिए कि इन आगम ग्रंथोंका उद्देश्य क्या है ? यह क्यों और कैसे प्रचलित हुए ? इन आगमों को इस विविधताका रहस्य क्या है ? इन विविधताओंका क्या रूप है ? इन सभी प्रश्नों का रूप ऐतिहासिक है और इस विषय में इतिहास मौन है । इन सब प्रश्नों के उत्तर पानेके लिए आज कोई भी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं है । इस ऐतिहासिक साधनके अभावमें यह कहना कि सब आगम आधुनिक हैं, एका गार वर्षसे अधिक प्राचीन नहीं है युक्ति-युक्त नहीं है । जैसे कई उपनिषद् आधुनिक है वैसे कई आगम अत्यंत प्राचीन भी हैं। वह जो प्राचीन हैं. कममे कम डेढ़-दो हजार वर्षके पहले के हैं । उपनिपदोंकी तरह यागमोंमें तात्विक चर्चा अधिक नहीं हैं। उनमें जन-सामान्यके लिए कहा हुया आचार-धर्मही अधिक है । ऐसा लगता है कि वैदिक प्राोंने अपने प्राचार-धर्म में सबके लिए मुमत हार नहीं रखा था । जिन-जिन पार्येतर जनांगोंने उनका संबंध प्राया
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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