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________________ ४८ वचन-साहित्य-परिचय प्रभुदेवके विषयमें अनेक वचनकारोंने अनेक बातें कही है। उनकी झलक दिखानेमें ही अनेक पृष्ठ भी कम ही पड़ेंगे । संभवतः ऐसी एक दो पुस्तकें भी कमहों। उनके वचनों की संख्या भी कम नहीं हैं। सभी वचनकारोंने उनकी प्राध्यात्मिक स्थितिका मुक्त कंठसे वर्णन किया है । और प्रभुदेव ने भी आध्यात्मिक जीवनके अन्यान्य पहलु प्रोंका विवेचन-विश्लेषण करने वाले अनंत वचन कहे हैं । 'शून्य संपादने' पोथीमें उन्हींके वचनोंकी संख्या सबसे अधिक है। उनके वचनोंमें गूढात्मक भी हैं। बिना भाष्यके उनका अर्थ समझना असंभव है। उनके वचनों पर उसी समयके तथा वादके टीकाकारोंने तथा भाष्यकारोंने टीकाएं लिखी हैं, भाष्य लिखे हैं । इन टीकाओं और भाष्यों की सहायतासे उन वचनोंका अर्थ समझ सकते है। एक बार उनके इस प्रकारके वचनोंका अर्थ लगने पर वे नित्य नूतनसे लगते हैं। नित्य नया अर्थ उनमेंसे झलकने लगता है । ऐसे वचनों को कन्नड़में 'मुंडिगे' कहते हैं । शून्य-सिंहासन से अनुभव-मंटप के शिवशरणों पर राज्य करते-करते प्रभुदेव फिरसे एक दिन भ्रमण के लिए च न पड़े। इस बार शिवकंची, रामेश्वर, महाबलेश्वर, सौराष्ट्र, सोमनाथ आदि तीर्थ स्थानोंका भ्रमण करते-करते वे केदार गये। वहांसे लौटते समय किसी गुफा में उन्हें शिवयोगका पूर्णानुभव हुमा । क्योंकि उस अनुभव का अद्भुततम शद्व-चित्र जो उनके वचनोंमें पाया जाता है, उसके पहले कभी नहीं मिलता । वे फिर अनुभव-मंटप में रहने लगे। जव वसवेश्वर कल्याणसे चले गये, शिवशरण दो गुटों में बंट गये, तव एक गुट के साथ वे श्री शैल गये । वहीं वे लिंगैक्य हुए । उनके वचनों पर 'प्रभुदेवर वचन' ऐसा एक सटीक ग्रंय हैं। वह कुमार जंबुनाथ देवने लिखा है। अपने शिष्य जक्करणको परमार्य वोध कराने के लिए लिखा है । उस पुस्तकके लिखने का संकल्प बड़ा लंबा-चौड़ा है। इस ग्रंथ में अल्लम प्रभु के ६७१ वचन हैं। वे सब छोटे और भाव-गंभीर हैं। उनमें गूढात्मक वचन भी बहुत हैं । उन पर अच्छा भाष्य भी है। उस भाष्यकी सहायतासे उन वचनों को समझ सकते हैं जिन वचनों का भाव समझ में नहीं पाता । वे केवल रेशमी धागोंकी उलझन मात्र है ! कुछ भी हो उनके वचनों में से वचनकारकी विरक्ति, उनका ज्ञान, उनका आत्म-विश्वास, उनका अनुभव, श्रादि अपने आप फूट पड़ता है, मानों खिलते हुए फूलका सुवास उस फूलमें समा न सकनेसे फूट पड़ा हो । (११) जैसे प्रभुदेव अथवा अल्लम महाप्रभु अनुभव-मंटपके अध्यक्ष थे, वैसे ही बसवेश्वर उसके संस्थापक थे। बसवेश्वरने धर्मक्रांतिका ध्वज उठाया और कर्नाटकके सव धर्मवीर उसके नीचे आकर इकट्ठे हुए जैसे सदैव
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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