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________________ वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय उन्होंने मुक्तायक्काको ज्ञानोपदेश दिया। सिद्धरामय्याको ज्ञान चक्षु दिये । फिर कल्याण में ग्राकर अनुभव मंटपके शून्य सिंहासन पर विराजमान हुए । शून्य-सिंहासन निर्विकल्प समाधिमें अनुभव ग्रानेवाली निःशून्य स्थिति है | - ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इस त्रिपुटी के समरसैक्यसे यह सिद्ध होता है । संभवतः इसका प्रतीक मानकर कोई ग्रासन वनाया होगा । किंतु यह कोई भौतिक अथवा लौकिक पद नहीं है, यह स्मरण रखना चाहिए । .." प्रभुदेव कल्याण प्राये । उनके आगमन और स्वागत के लिए वसवेश्वरादि शिव-शरण पहले से तैयार थे । अल्लम महाप्रभुको देखकर वह फूले नहीं समाये । उन सबका रोम-रोम प्रानंदसे खिल उठा । बसवेश्वरका हृदय चहक उठा, "समुद्रको चंद्रमा ही प्रारण है रे ! सूखे तालावकी कमलिनीको पानी ही प्राणहै रे ! उन्होंने कहा, "अपने पति के श्रागमनके लिए प्राणोंकी आँखें बनाकर प्रतीक्षा कर रहा था मैं । वह अपने आप आकर मेरे हृदय सिंहासनपर विराजमान हो गया । मेरा जीवन सार्थक हो गया !” बसवेश्वरने ऐसे अनेक वचनोंसे उस उत्सवका वर्णन किया है । इन सब वचनों में बसवेश्वरने यह भी कहा है, "तुम्हारे पाद - प्राक्षालन के लिए मेरा आनंद सागर लहरें मारता हुआ उमड़ आता है ।" उसी दिन बसवेश्वरके घर में और एक वात हुई । एक ओर ग्रल्लम महाप्रभुके स्वागत में वसवेश्वरादि शिवशरण अपने आपको भूल गये थे । दूसरी ओर बसवेश्वर के घर दासोहम् के लिए अर्थात् प्रसाद ग्रहण के लिए, अथवा भोजनके लिए प्राये हुए जंगम यजमानकी राह देखते-देखते थक गए । उनको क्रोध ग्राया । वे जल-भुन गए । उन्होंने कहा, "यह ग्रल्लम जादूगर है । उनके पीछे पड़कर इस व्रत-भ्रष्ट बसवेश्वरने हमारा अपमान किया । जंगमोंका तिरस्कार किया । इस लिये इन दोनोंको इह पर दोनों नहीं मिलेगा !" ४७ यह सुन कर बसवेश्वरको वड़ा दुःख हुआ और ग्रल्लम प्रभुने उनको समझाते हुए कहा, “चलो हम देव और मृत्यु लोकका प्रतिक्रमरण करें, उससे परे चलें !" कहकर उनका समाधान किया । वसवेश्वरने प्रभुदेव तथा अन्य शिवशरणोंके साथ दासोहम् किया । बादमें ग्रन्य शरणोंने प्रभुदेवको श्रद्धांजलियां दी । उनका स्तोत्र गाया गया । यह सुनकर प्रभुदेवने कहा, "इन स्तुति स्तोत्रोंसे क्या होता है ? निःशब्द ब्रह्म वातोंकी वाढ़से कैसे प्राप्त होगा ? इस लोक में आनेका सेवा कार्य हो गया । तुम अपने आपको जानकर 'ऐक्य' साध लो !" १. इस वचनमें अनुवाद में आए हुए 'सेवा कार्य' के अर्थ में मूल शब्द है - मणिह महि अनेक अर्थवाला शब्द है जैसे सेवाकार्य, व्यवसाय, मंदिर, मठ, आदि ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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