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________________ वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय ३७ चरित्र चामरस कविने "अमुलिंग लीले" नामके काव्यमें लिखा है । उनके कल्याणमें पहुँचनेके बादका वर्णन 'शून्य सम्पादने' में २०६ से २९६ वें पृष्ट तक विस्तारसे दिया गया है। ___उडुतडी नामका गाँव उनकी जन्म-भूमि है। उनके माता-पिताका नाम सुमति और विमल था। वे दोनों वीरशैव थे । गरीब होने पर भी शील-संपन्न थे। धर्म-प्राण थे। उन्हींसे अक्क महादेवीका जन्म हुआ। वे अनुपम सुंदरी थीं। अपने माता-पिताकी इकलौती लाड़ली बेटी थीं। बड़े लाड़-प्यारसे पली, पढ़ी और बढ़ीं। उनके अनुपम सौंदर्य पर मुग्ध होकर कौशिक नामके जैन राजाने उनसे विवाह किया। किन्तु पत्नीकी इच्छानुसार राजाने वीरशैव धर्म में दीक्षित होनेसे इन्कार कर दिया । अक्क महादेवीने अपने रानी पदको त्याग दिया । भौतिक भाग्य-भंडार पर लात मारी। दिगंवरी वन कर कल्याणमें आईं। उस समय वे नव-यौवना थीं। परम सुंदरी तो थी ही । उनके सामने दो रास्ते थे, एक और भौतिक भाग्य-वैभवका अंबार था, दूसरी ओर दुःख कष्ट, वेदना, यातना और विडम्बनाका कैलास ! उन्होंने इसी कैलासको अपना आदर्श मानकर घोषणा की, "चन्नमल्लिकार्जुन ही मेरा पति है। वही मेरा स्वामी है। अन्य किसी पतिसे मेरा कोई संबंध नहीं ।" और अपना सर्वस्व कैलासपतिको समर्पण कर दिया। वह चलीं । सैंकड़ों मील चलीं । कल्याण पहुँची। श्री बसवेश्वरके घर पर उनका वैसा ही स्वागत हुआ जैसे विवाहके बाद पहली बार मायके आई हुई घरकी अपनी लड़कीका होता है। स्वयं नीलांबिकादेवीने (श्री वसवेश्वरकी धर्मपत्नीने) सैंकड़ों मील चलकर घर आई हुई लड़कीको नहलाया । अपने हाथसे खिलाया। कुशल प्रश्न किये । आखिर वह अनुभव-मंटपमें गयीं । संतोंका दर्शन किया । उनको नमस्कार किया। अल्लम प्रभु शून्य सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होंने कहा, "तुम नवयौवना सुंदरी हो । अपने पतिका ठौर-ठिकाना बतायो । तभी यहां शरणोंके साथ बैठ सकोगी। नहीं तो जैसी आयीहो वैसी ही चली जाओ।" __कैलासपति ही मेरा पति होना चाहिए, ऐसी मैंने जीवन भर तपस्या की। सबने उसके साथ विवाह करके मेरी इच्छा पूरी की।" महादेवी ने उत्तर दिया। उस समय उन दोनों में जो सुदीर्घ संभाषण हुआ वह अत्यन्त उद्बोधक है। अल्लम प्रभु एकके बाद एक अपने प्रश्नरूपी तेज शस्त्रसे उनका हृदय और मस्तिष्क छीलते जाते हैं; और दूसरी ओर वह वीरांगना उतने ही शान्तभावसे, उतनी ही नम्रतासे, किंतु उससे सौगुनी दृढ़तासे उत्तर देती जाती है । ___ "मैं तुम्हारी वातपर विश्वास नहीं कर सकता !" अल्लम प्रमु कहते हैं__ "कौशिकने दीक्षा नहीं ली, इस गुस्से में तुम यहाँ आयी हो। अगर तुममें सच्चा
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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