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________________ वचन-साहित्य-परिचय कायक अपनाया था। इसीपर कटाक्षकर वह पुण्यांगना पूछती है, "लकड़ी काटते-काटते तुममें (त्यागका) अहंकार आ गया है ? हम उनसे (भगवानसे) मिले हैं, ऐसा (सवसे) कहने में तुम्हारी ही हानि है।" एक ओर वह अपने पतिको ज्ञान दे रही है । साथ-साथ वह अपनी सीमाका भी उल्लंघन नहीं करती। वह पतिसे नम्र होकर कहती है "शक्तिकी (स्त्रीकी) वातें कहकर उनकी अवहेलना नहीं करना ।" पतिको अपनी भूल का ज्ञान होता है। वह अपनी पत्नीसे नम्र प्रार्थना करके कहता है, "मुझे निजैक्यका रहस्य बतायो !" __ वह कहती है, "तुम (मेरे लिए) महालिंगस्वरूप होनेसे मुझे वह अधिकार नहीं है । मेरी स्त्री जाति है। तुम्हारे चरणोंमें रत रहने के अलावा मैं दूसरा धर्म नहीं जानती !" ___"तुम सच्ची पति-परायण धर्मपत्नी हो । मेरे सदाचार, सद्भक्तिके अंतर्गत हो । तुम्हारी भक्तिकी फसल ही मेरा सत्पथ है । मेरी भक्तिकी तुम शक्ति । हो !" आदि बातोंसे पति, पति पत्नीके अद्वैत धर्मका भान दिलाता है । यह सब सुनकर वह सती पतिको ऐक्य-भक्तिका वोध कराती हुई कहती है, "तुम्हारी स्थिति अंधेके हाथ में रत्न होनेकी-सी हुई।" इस प्रकार पतिकी मीठी भर्त्सना कर वह कहती है, "आत्म निश्चय होने में ही कैलास है। भिन्न भाव-रहित होकर जाने हुएको अनुभव करना ही ऐक्य स्थल है ।............इसका आनंद मेरे और तेरे मिलनेके आनंद सा है !" इस पुण्यांगनाकी बातें पढ़ते समय लगता है वह कन्नड़ भाषामें उपनिषदोंकी रचना करनेवाली कोई महान विदुपी हो । पति-पत्नीके इस संभाषणमें महादेवियम्माके ज्ञान, विनय, विनोद, आदिके साथ सतीपति-संबंधकी प्राध्यात्मिक मर्यादाका उत्कृष्ट दिग्दर्शन हुआ है। यह संभाषण पति-पत्नीके आध्यात्मिक संबंधका सुन्दर आदर्श वाचकके सामने रखता है। उपनिषदोंमें याज्ञवल्टकने अपनी पत्नीको आत्म-ज्ञान सिखाया है और यहां पत्नीने अपने पतिके झान-चक्षु खोले हैं । पतिके ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान, अहंकार आदिका परदा उठा कर उसको आत्म-बोध कराया है । (३) महादेवी अम्मा अपने ज्ञानसे पतिका पथप्रदर्शन करनेवाली सती शिरोमणि हैं तो उडुतडीकी अक्क महादेवी पतिसे विद्रोह करनेवाली वीर वैराग्यशालिनी धर्म-माता । उनका वैराग्य, उनकी निष्ठा, उनका तीव्र अनुभव और अनिर्वचनीय साहस यह सब भारतीय अध्यात्म-जीवनके इतिहासमें स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । उनका समग्र जीवन अध्यात्म-जगत्का दैदीप्यमान हीरा है । उनके वचन उनके उज्ज्वल चारित्र्य और शीलसे पुष्ट हुए हैं । उनका
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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