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________________ वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय ३५ मुक्तायक्का अपने ग्रग्रजके दिव्य ज्ञानका परिचय देते हुए कहती है, "यह सव खोकर मैं कैसे जीऊं ? कहते हैं न, विना गुरुके मोक्ष नहीं मिलता. ?" तब अल्लम प्रभु उसको समझाने लगे, "अपने ग्रापको जान लिया कि वह ज्ञान ही गुरु है । दूसरे गुरुकी प्रावश्यकता नहीं ।" अल्लमप्रभुकी वातों से मुक्तायक्काको शांति नहीं मिली। उन्होंने सीधे कहा, "अब तक तेरी भूखका बंधन नहीं टूटा | तेरी वातोंका मंथन नहीं मिटा । मुझे क्या ज्ञान सिखाने आया है ? जा अपना रास्ता नाप । " 1 मुक्तायक्का से ऐसी बातें सुनने पर भी अल्लम प्रभु वहांसे नहीं हटे । वह संत थे । सच्चे अर्थोंमें संत थे । एक वार संतकी कृपा हुई उद्धार अनिवार्य है । अल्लमप्रभुने कहना शुरू किया "शरण, जाकर भी निर्गमनी है । वोलकर भी मौन है | अपने आपमें सद्गत होनेसे वह निर्लेप है !" अल्लम प्रभुकी करुणा अपमान सहकर भी उद्धार करनेके लिए तड़पती थी । उस करुणाकी जीत हुई । अल्लमप्रभुकी वह दिव्यवारणी ! वे सिद्धावस्था की स्थितिका वर्णन करते गये “शिवशरणोंकी स्थिति पानी पिये हुए लोहेकी-सी है, शून्यको प्रालि - गन किये हुए हवाकी-सी है।" मुक्तायक्का शब्द-मुग्ध होकर सुनती रही। उसके ज्ञान चक्षु खुले । वह अपना प्रलाप भूल गयी । आखिर उसने मुक्तकंठसे कहा, “मेरे ग्रजगण्णमें मुझे विलीन कर, तूने मुझे प्राग निगले हुए कपूरका-सा बना दिया रे .....!" 'शून्य संपादने' में लिखे गये इस संभाषण में मुक्तायक्काका निःस्सीम बंधु प्रेम, तत्त्व-निष्ठा, गहरी विवेक शक्ति, श्रादिका सुन्दर परिचय मिलता है । (२) "क्या तू मुझे ज्ञान सिखाने प्राया है ?” – कह कर अल्लम प्रभु-जैसे सिद्धकी अवहेलना करनेका आवश्यक धैर्य मुक्तायत्रकामें था, तो अपने पति के अज्ञानको दूर करके उनको "निजैक्य" का बोध कराने की योग्यता हमारे मोलिगये मारय्यकी धर्मपत्नी महादेवीयम्मामें थी । यह प्रसंग 'शून्य संपादने ' ग्रंथके २४२ से २४८ पृष्ठतक आया है । वह अपने पति से प्रत्यंत मार्मिकता के साथ पूछती है, “तुम अव लिंगैक्य होने की बात कहते हो तो क्या इसके पहले लिंग में एकार्थ नहीं हुआ था ?" वह पूछती है, "अपना देश, कोष, वास, भंडार आदि छोड़कर यहाँ ग्राकर भक्ति करनेसे यदि ऐक्य होना हो तो क्या यह ऐक्य - भक्ति इसका ( तुम्हारे त्यागका) पुरस्कार है ?" यह पहले ही कहा जा चुका है कि मोलिगये मारय्य पूर्वाश्रमका काश्मीर नरेश था । वे अपना सर्वस्व त्याग कर साक्षात्कार करने के लिये कल्याण में ग्राकर साधना करते थे । उन्होंने उपजीविका के लिए लकड़ी काटकर बेचनेका
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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