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________________ की . ३२ वचन-साहित्य-परिचय .. . वचन हैं उन सवमें पाई जानेवाली सुसंबद्ध एकवाक्यता, सूत्रबद्धतासे मानवीय 'मन चकित-सा हो जाता है । वह अभिभूत हो जाता है । अनुभव-मंटप वचनकारोंका एक बड़ा भारी संगठन था । वह उनकी अपनी संस्था थी। वचनकारोंके व्यक्तिगत जीवनके विषयमें कहनेसे पहले उनके सामूहिक व्यक्तित्वके विषय में और कुछ बातें कहना शेष है। वचनोंकी संख्याके विषय में लिखते समय पहले ही लिखा जा चुका है कि वचनकारोंने कहा है कि वे करोड़ोंकी संख्यामें हैं । किंतु वचनकारोंके विषयमें वह बात नहीं है । वचन-शास्त्र-सार नामकी पोयीके परिशिष्ट में कुल २१३ वचनकारोंका नाम मिलता है । उनमें से १६८ वचनकारोंका नाम और मुद्रिका दोनों हैं । ४५ वचनकारोंकी मुद्रिका मात्र है, नाम नहीं मिलता। उनके नामका अबतक कोई पता नहीं चला । २१३ वचनकारों में २८ देवियां हैं। ऐसे अनेक वचनकारोंका यत्किचित् भी पता नहीं चलता जिन्होंने अत्यन्त अनुभवपूर्ण वचन कहे हैं । उदाहरणके लिए हम 'निजगुरु स्वतंत्र सिद्ध लिंगेश्वरा' इस मुद्रिकासे लिखे गये वचन ले सकते हैं । अपने सर्वापरणके सिद्धांतके अनुसार, सामान्यतया सव वचनकार अपने वचनके साथ अपना नाम न देकर अपने इष्ट लिगका, अथवा अपने गुरूका नाम देते थे। अपने नामसे ही वचन कहनेवाले वचनकार केवल पाठदस ही हैं । २१३ में यह संख्या 'अपवादात्मक' कही जा सकती है । ऐतिहासिक दृष्टि से अथवा आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे देखने पर उनका गाँव, काल, नाम, आदि मिलता तो बड़ा अच्छा होता । किंतु परमार्थ दृष्टिसे विचार करनेवालोंके लिए इसकी क्या कीमत ? उन्होंने भगवन्नामका ध्वज उठाया। वह स्वयं उस ध्वजके स्तंभ बन गये । बाद में आने वालोंने “झंडा ऊँचा रहे हमारा' कह कर ध्वजका वंदन किया। स्तंभ अज्ञात ही रह गया । इस तरह धर्म-ध्वजके इन स्तंभों का पता ही नहीं चला ! सचमुच ध्वजका आधार बनने पर भी उसके स्तंभकी भला कौन कदर करता है ? अाज ऐतिहासिक दृष्टिसे इन सब वचनकारोंका इतिवृत्त देना दूर रहा उनमेंसे कई लोगोंके नामका भी पता नहीं चलता । फिर भी, उन्होंने अपने अनुभवपूर्ण वचनोंसे समाजको ज्ञानका प्रकाश दिया है, इसके लिए उन अज्ञात वचनकारों के प्रति भी हमें कृतज्ञ रहना चाहिए । ये सब वचनकार अपनी उपजीविकाके लिए 'कायक'' करते थे । सिद्धावस्थामें भी वे अपना कुल-परंपरागत व्यवसाय करते रहे । उनमेंसे कई लोगोंके नामसे ही इसका पता चलता है । काश्मीरका महाराजा भी अनुभव-मंटपमें आनेके वाद लकड़ी बेचकर अपनी उपजीविका चलाता था । जो कुछ 'कायक'२ १. शारीरिक परिश्रम, आजीविकाकी साधना; २. पारिश्रमिक
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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