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________________ वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय ३३ I 1 आता था वह उसी दिन लिंगार्पण किया जाता था । बाद में प्रसादके रूपमें उसका ग्रहण होता इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में 'शरीर - परिश्रम और अपरिग्रह का मेल बिठाया था । सब प्रकारका कायक करनेवाले लोग वचन - कारोंमें थे । उनमें चमारका, डोमका, मरे हुए जानवरोंको चीरनेका कायक करनेवाले भी थे । ये सब अपना-अपना 'कायक' अपने इष्टलिंगको अर्पण करते । अपने नियमानुसार योग्यतानुसार जंगम-पूजा ' करते । दासोहम् २ करते । अपने कायक आदिसे बचे हुए समय में ज्ञान चर्चा करते । इस ज्ञान चर्चा में जो कुछ अपना अनुभव कहते वह अपने इष्ट लिंगके नामसे, गुरुके नामसे कहते, मानो उनको अपने शरीरका भान ही नहीं हो । नाम-रूपादि शरीरका है न और वह नाशवान है ! ग्रात्मा ही अमर है । वह अखंड है । वहाँ पर नाम-रूप श्रादि कहाँ से आएगा ? इस एकात्मभाव के अनुभवसे ही अनेक वचनकारोंके भिन्न-भिन्न स्थान -काल और परिस्थिति में कहे हुए वचनोंमें आश्चर्यजनक एकसूत्रता याई होगी ? जो कुछ हो, जैसे एक जगह स्वामी विवेकानंदजीने कहा है, "मैं नहीं तू हैका अनुभव करना ही धर्म है" वचनकारोंने यह अनुभव कर लिया था । इस लिए अमर साहित्यका निर्माण करने पर भी उनका 'मैं' नहीं रहा । वह ईश्वर के नाममें विलीन होकर ईश्वर रूप हो गये, मानो नदी समुद्रमें डूबकर समुद्र हो गयी, वरफ पानी में पिघलकर पानी हो गया । वचनकारोंने अपने इतिवृत्तके विषय में कहीं कोई निर्देश नहीं किया । अपने स्थान, कुल, आदिके विषय में कभी कुछ नहीं कहा। किंतु उनके वचन कन्नड़ - भाषी लोगोंके भावाकाशमें गूंज रहे हैं, कन्नड़ साहित्य-गगनमें चमक रहे हैं । करीब एक हजार वर्ष पहले उन्होंने जो रास्ता बताया था उस पर नाज भी कुछ लोग चल रहे हैं । उन्होंने कभी यह नहीं सोचा होगा कि हमें वचन लिखने चाहिए जो ग्रागे जाकर वचन साहित्य अथवा वचनशास्त्र कहलाएंगे । उन सव वचनोंको व्यवस्थित रूप देना चाहिए । आधुनिक व्यापारियोंकी तरह सजाकर रखना चाहिए उनको सपने में भी यह बात नहीं सूझी होगी । यदि ऐसी कोई बात उनके मनके किसी कोनेमें भी होती तो वह बुद्धि पुरःसर ऐसा प्रयत्न करते । किंतु विशाल वचन - साहित्य में कई गोते लगाने पर भी इस भावनाका नामो-निशान नहीं मिलता । उसकी गंध भी नहीं आती । और आये भी तो कैसे प्राए ? वह तो ईश्वर - साक्षात्कार के लिए पागल थे । उन्होंने अपना सर्वस्व ईश्वरार्पण कर दिया था । उनका विश्वास था कि साक्षात्कार ही हमारे जीवनका उद्देश्य है । उन्होंने अपने स्वभावधर्मानुसार साधना करते समय जो अनुभव १. शैव संन्यासियोंका आदर सत्कार २. गुरु, लिंग या जंगमकी पूजा करके प्रसाद ग्रहण करना
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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