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________________ षट्स्थल शास्त्र और वीरशैव संप्रदाय २८५: सत्कार करना ही शिवाचार है । निष्ठा से लिंग धारण करके लिंग पूजा करना, व्रतादि करना लिंगाचार है । यह श्रष्टावरण और पंचाचार ही इस संप्रदायका वैशिष्ट्य है । अव इस विषयके वचन देखें । वचन—(४८७)पर शिवको चित् शक्ति अपने आप दो प्रकारकी वनी । एक लिंगाश्रित रहकर शक्ति कहलाई और दूसरी अंगाश्रित होकर भक्ति । शक्ति ही प्रवृत्ति कहलाई और भक्ति ही निवृत्ति । शक्ति भक्ति दो प्रकार बने । शिवलिंग छः प्रकारका बना । श्रंग भी छः प्रकारका बना । पहले लिंग तीन प्रकारका बना । वह ऐसे - भावलिंग, प्राणलिंग, इष्टलिंग | फिर प्रत्येक लिंग दो प्रकारका वना, वह ऐसे - भावलिंगकामहालिंग और प्रसादलिंग,. प्राणलिंगका जंगमलिंग और शिवलिंग, इष्टलिंगका गुरुलिंग और आचारलिंग ।.. ऐसे लिंग छः प्रकारका बना ।" अब एक अंग भी पहले तीन बना, जैसे --. योगांग, भोगांग और त्यागांग, यह तीनों अंग दो-दो प्रकारका बना । वह ऐसेयोगांग ऐक्य और शरण बना, भोगांग प्राणलिंगी और प्रसादि बना, त्यागांगका माहेश्वर और भक्त ऐसे एक अंगके छः प्रकार बने । अंगका अर्थ है शरण, और लिंग सदैव उस अंगका प्रारण है । अंग सतत उस लिंगका शरीर है । अंग और लिंग, वीज वृक्ष न्यायसे सदैव अभिन्न है । उनमें कोई भिन्नता नहीं । . अर्थात् अनादिकाल से शरण ही लिंग और लिंग ही शरण है । इन दोनों में कोई भेदभाव नहीं है । स्वानुभाव विवेकसे यह जानना ही ज्ञान है । श्रागम, . युक्ति, तर्क प्रादिसे जानना ज्ञान नहीं है । शास्त्र ज्ञानसे साधक संकल्पहीन नहीं, होता । यह पट्स्थल पंथ द्वैताद्वैत परिवर्तन नहीं क्योंकि यह शिवाद्वैतका मार्ग है । लिंगांग संबंधको समरसैक्यसे अनुभव करनेके उपरांत ब्रह्म परब्रह्म ऐसा अपने से भिन्न है क्या महालिंगगुरु शिवसिद्धेश्वरप्रभु । टिप्पणीः—–परिचय विभाग के संप्रदाय नामके परिच्छेदमें दिया हुआ स्थल' वृक्ष देखनेसे इस वचनको समझने में अच्छी सहायता मिलेगी । (४८८) भक्तको क्रिया, महेश्वरको निश्चय, प्रसादिको अर्पण, प्राणलिंगी-को योग, शरणको एकरस होना तथा ऐक्यको निर्लेप होना इस प्रकारका यह पट्स्थलानुग्रह विरक्त के ग्रात्मतत्त्व का मिलन है । शंभूसे स्वयंभूका प्रतिक्रमितः प्रतिबल है यह मातुष्वंग मधुकेश्वरा । ( ४८६) विश्वास से भक्त होकर, विश्वास में स्थित निष्ठासे महेश्वर होकर,. उस निष्ठांतर्गत दक्षतासे प्रसादि होकर, उस दक्षता के अंदर बसे स्वानुभवसे प्राणलिंगी बनकर, उस स्वानुभवजन्य ज्ञानसे शरण हो रके वह ज्ञान अपने में ही समरस होते हुए निर्भाव पदमें स्थित होना ही ऐक्यस्थल है गुहेश्वरा ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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