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________________ २८६ वचन-साहित्य-परिचय (४६० ) किंकुर्वाणतासे अपना कर्म जानकर उस कर्मको करते रहनेसे भक्त, निष्ठा एकरस होकर पानीका वर्फ जमनेकी भांति जमकर अभिलाषाओंका अतिक्रमणकर शुद्ध विवेक होना महेश्वर, कभी अर्पित स्वीकार न करके, काया वाचा मनसे प्राप्त कायकको ही लिंगापित करते हुए उसका भोग करनेवाला प्रसादि, प्राणका प्रारण वनकर, सदैव दक्ष रहा तो प्राणलिंगी, लिंगका अंग और अंगका लिंग बनकर उसमें अभिन्न रहा तो शरण, सदाचार संपदामें आनेवाले अनुभवोंका अतिक्रमण करके नामरूप मिटाकर सुखी होनेवाला ही लिंगैक्य है। इसलिए कूडल चन्नसंगैयमें वसवण्णके अतिरिक्त षट्स्थल पूर्व । टिप्पणीः-षट्स्यलोंके लक्षण कहने में कहीं-कहीं कुछ भिन्नता है किंतु वह महत्त्वकी नहीं । साधकका स्थल उसकी आंतरिक स्थितिसे जाना जाता है। (४६१) स्थल कुल जानना चाहते हैं, भक्त होकर महेश्वर होना' चाहते हैं। महेश्वर होकर प्रसादि होना चाहते हैं, प्रसादि होकर प्रारलिंगी होना चाहते हैं, प्राणलिंगी होकर शरण होना चाहते हैं, शरण होकर ऐक्य होना चाहते हैं । यह मिलन किससे होगा यह नहीं जानता । अन्दर वात वाहर झलकनी चाहिए, छलकनी चाहिए, "मैंने जाना" ऐसा नहीं कहना चाहिए, ऐसा कहनेकी आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए, मुझे ऐक्य होकर शरण बनना है, शरण होकर प्राणलिंगी बनना है, प्राणलिंगी होकर प्रसादि वनना है, प्रसादि होकर महेश्वर बनना है, महेश्वर होकर भक्त बनना है, भक्त होकर सकल' युक्त वनना है । युक्त होनेका निश्चय होते ही अंतर्वाह्य एक होता है । यही मैंने देखा अनुभव किया अलोकनाद शून्य शिलाके बाहर छलकते देखा तुझे। । टिप्पणी:-यह स्थल कोई पाठशालाकी श्रेणियां नहीं हैं किंतु साधकके अंतरंगकी स्थिति है। विवेचन--स्थलका विवेचन हुना, अव गुरु कारुण्य, अष्टावरण आदिका 'विचार करना आवश्यक है। इस संप्रदायका यह मूलभूत सिद्धांत है कि अज्ञान . के आवरणमें तड़पने वाला जीव विना गुरु कारुण्यके मुक्त नहीं हो सकता। "शून्य संपादने" नामके ग्रंथ में गुरुकारुण्य-स्थलमें यह बात स्पष्ट कही है। इसके साथ ही साथ "अपने आपको जान लिया तो वह ज्ञान ही गुरु है ।" "अनुभव ही गुरु है" ऐसे वचन भी आते हैं । प्रागमकारोंके कथनानुसार "गुरु होनेवालेको सकल आगमोंका हृदयगत जानकर आदि मध्य अंत्य जानकर अपने सर्वाचारको प्रतिष्ठित करना" होता है । तथा वही शिष्य बनने अथवा दीक्षाके लिए योग्य कहा जा सकता है जो सदाचार संपन्न हो । वहां उनकी जाति, कुल, वर्ण, लिंग आदिका कोई बंधन नहीं है। गुण कर्म के विचारसे ही किसीको दीक्षा दी जा सकती है । अन्य शैव दीक्षासे वीरशैव दीक्षा श्रेष्ठ है। इसीलिए शैव गुरुसे
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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