SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ वचन-साहित्य-परिचय भक्तके भक्तका गुरु लिंग, भक्तके भक्तका जंगम लिंग, भक्तके भक्तका शिव'लिंग, भक्तके भक्तका प्रसादलिंग, भक्तके भक्तका महालिंग, ऐसे छ: लिंग स्थलोंके संयोगसे ३१६ स्थल हो जाते हैं। ऐसे अनेक सूक्ष्म विवेचन विश्लेपण 'किए गए हैं; किंतु व्यवहारिक दृष्टिसे पटस्यल ही उपयुक्त हैं और वही सामान्यतथा प्रचलित हैं। __अब पट्स्थल साधनाके साध्यरून लिगैक्यकी प्राप्तिके साधनोंका विचार करें। इस साधनाक्रमका मूलतत्त्व सर्पिण, भक्ति, ज्ञान, कर्म प्रादिका, -तथा विधि-निपेध आदि नीति नियमोंका विवेचन इसके पहले ही हो चुका है। अब उन नीति नियमों के द्वारा यह सांप्रदायिक ध्येय कैसे प्राप्त हो सकता है यही देखना है। तत्वतः जीवशिवस्वरूप है किंतु अज्ञानके कारण वह वद्ध है । अज्ञानवश वह बद्धजीव अपने शिवतत्वका भान होनेसे शिवैक्य प्राप्त करने के लिए, अथवा अपने अंग गुणोंको नष्ट करके लिंग गुणोंका विकास करनेके लिए प्रयास करता है । इस प्रयासमें सहायता पहुंचानेके लिए अष्टावरण कहे गए हैं। वे अष्टावरण गुरुपूजा, जंगमपूजा, लिंगपूजा, पादोदक, प्रसादग्रहण, विभूतिधारण, रुद्राक्ष धारण, ‘पडक्षरी मंत्रक जप, हैं । अावरणका अर्थ कवच है । कवचसे कवचधारीकी रक्षा होती है । यह कवच साधकके रक्षक है । मंत्रबोधके साथ जो करस्थलपर लिंग देता है वह गुरु है। लिंग परमात्माका प्रतीक है। उस लिंगको शरीरपर धारण करके विधिवत् उसकी पूजा करना ही लिंगपूजा है । अपना सर्वस्व उस लिंगको अर्पण करके उसका प्रसाद सेवन करना ही प्रसाद ग्रहण है। शरीरपर लिंग धारण करके मनुष्य अपने अंग गुणोंका त्याग करते-करते लिंग गुणोंको ग्रहण करते जाता है । उसी प्रतीककी सहायतासे शिवका ध्यान करना चाहिए । पटस्थलमें ऐक्यस्थल सर्वोच्च स्थल है। उस स्थलको प्राप्त करके सिद्धावस्थामें विचरण करनेवाला जंगम है। श्रद्धासे, दास्यभावसे उसका पागत-स्वागत और पाद्यपूजा करके पादोदक और प्रसाद सेवन करना ही जंगम पूजा है तथा पादोदक और प्रसादग्रहण । रुद्राक्ष और विभूति धारणसे तन मन शुद्ध होता है । सदेव 'ओं नमः शिवाय' जप करना चाहिए। यह साधकका अष्टावरण अथवा रक्षा "कवच है । इससे साधक धीरे-धीरे शिवक्य प्राप्त करता है। इस अष्टावरणका भांति पंचाचार भी कहे गये हैं। ये उन पंचाचारोंके नाम हैं । सदाचार, गणाचार, नित्याचार, शिवाचार और लिंगाचार । शुद्ध, सरल, नैतिक प्राचार ही सदाचार है। सत्य और धर्मका यथायोग्य आचरण करना ही गणाचार है। नित्य नियमसे पूजा अर्चा, जप, भस्म धारण आदि 'करना ही नित्याचार है। लिंगधारीको प्रत्यक्ष शिव मानकर उनका आदर
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy