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________________ षट्स्थल शास्त्र और वीरशैव संप्रदाय २८३ अब यह प्रश्न आता है कि यह छः स्थल कैसे सिद्ध हुए ? उनके लक्षण क्या हैं ? साधककी आत्मा अथवा जीवका, परमात्मा अथवा शिवसे जिस प्रकारका संबंध है, अथवा वह जिस प्रकारका आचरण करेगा इसपर वह स्थल निर्भर है | साधक जीव है और परमात्मा शिव । इस संप्रदाय में जीवको अंग कहते हैं तथा शिवको लिंग । निःकल शिवत्व अपनी शक्ति के चलनसे द्विविध हो गया । लिंग और अंग । लिंगके पुनः तीन प्रकार हुए । — गुरु-लिंग, जंगम- लिंग और आचार-लिंग । पुनः इनमें से प्रत्येक लिंगके दो प्रकार बने - महालिंग, गुरु लिंग, प्रसाद लिंग, जंगम लिंग, शिव लिंग, आचार लिंग | वैसे ही अंगके तीन प्रकार वने — त्यागांग, भोगांग, और योगांग । पुनः इनमें से प्रत्येक अंगके दो-दो बने— ऐक्य, शरण, प्राणलिंग, प्रसादि, महेश, और भक्त । इस प्रकार छः लिंग स्थल और छ: अंग स्थल वने । अंग र लिंगके इस विशिष्ट प्रकार के संबंध के कारण अथवा स्थलके कारण इस संप्रदाय को षट्स्थल संप्रदाय कहा जाता है । श्रव इनके लक्षणोंका विचार करना है । लिंग में संपूर्ण विश्वास ही भक्त स्थलका लक्षरण है । वह विश्वास दृढ़ होकर गुरुलिंग जंगमकी सेवा करना महेशका मुख्य लक्षण है । साधकका सव कुछ लिंगार्पण करना और प्रसाद रूप जीवन व्यतीत करना प्रसादिका लक्षण है । अपने प्रारणको लिंग में विलीन करके दोनोंके प्रभेदका अनुभव करना प्राणलिंगीका लक्षण हैं | लिंगांग योगका अनुभवयुक्त ज्ञान ही शरणका लक्षण है; और वह ज्ञान स्थिर होकर समरसैक्यका अनुभव करना ऐक्य स्थलका लक्षण है । यह सब अत्यंत संक्षेप में कहा गया है । इन सबका विस्तार उन वचनों में देख सकते हैं तथा परिचय खंडके सांप्रदायिक परिच्छेद में भी । उस परिच्छेद में कुछ अधिक विस्तार के साथ इसका विवेचन किया है । षट्स्थल शास्त्र के अनुसार, यह छः स्थल ही मुख्य हैं, किंतु उसमें भी पर्यायसे ३६,१०१ और २१४ स्थलोंकी कल्पना की गई है । जैसे इन छः स्थलों में भक्तका भक्त, भक्तका महेश, भक्तका प्रसादि यादि । ऐसे ही प्रत्येक स्थल में अन्य पांच स्थलोंकी कल्पनाके संयोग से ३६ स्थल हुए। वैसे ही भक्तका प्राचार लिंग, भक्तका गुरु लिंग आदि प्रत्येक अंगस्थल से लिंग स्थल के संयोजनसे भी ३६ स्थल सिद्ध हुए । इनके अतिरिक्त भक्त स्थलसे ऐक्य स्थल तक १५-६-७-५४-४ ऐसे अंग स्थलके संयोजनसे ४४ तथा आचारलिंगसे महालिंग तक क्रमशः ε-६-६-६-६-१२ ऐसे सब लिंग स्थलों के संयोजनसे ५७ लिंगोंकी कल्पना की गई है । इन सबका स्पष्ट उल्लेख सिद्धलिंगेश्वर के 'एकोत्तरशतस्थल " इस ग्रंथ में है । इसमें और एक प्रकारसे, जैसे भक्तका भक्त, भक्तका महेश, भक्तका प्रसादि ऐसे ३६ स्थल सिद्ध होनेके उपरांत, उसमें फिरसे भक्त के भक्तका श्राचारलिंग,
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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