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________________ तक सफल हुपा है यह देखकर ही आलोचना करनी होगी। किसी भी साहित्य के उद्देश्यका विचार न करते हुए सर्वसामान्य नियमों के आधार पर साहित्यका मूल्यांकन करना उचित नहीं होता । ऐसा मूल्यांकन, कमल-काननमें गये हुए -सुनारके द्वारा कोमल कमल-पखुड़ियों को अपनी कसौटी के पत्थर पर कसकर किये गये मूल्यांकन-सा होगा। यदि यह मान लिया जाय कि वचनकारोंने अपने अनुभवजन्य सत्यसे अन्य जिज्ञासु सत्यार्थियोंके पथप्रदर्शनके लिए वचन कहे हैं तो एक हजार वर्ष तक टिककर उन्होंने अपना कार्य करते हुए अपना मूल्यांकन स्वयं कर लिया है। वचनकारोंने अपने अनेक वचनोंमें अनेक प्रकारके अत्यंत गूढ़ और उच्च ‘विचारों को सरलता और सुलभतासे व्यक्त किया है। उनमें अव्यक्त परमात्माके वर्णनसे लेकर, सृष्टि, सृष्टि रचनाका क्रम, मुक्ति, साक्षात्कार आदि दार्शनिक “विषय, सर्पिण, भक्ति, ज्ञान, ध्यान आदि साधना मार्गोका विवेचन, तथा सत्य वोलो, परस्त्री को मो समझो, दया करो, आदि नीतिवचन भी हैं। इसी पुस्तकके दूसरे खंड में पाठक ऐसे वचनों को देख सकते हैं। इसी पुस्तकके द्वितीय खंडके पहले अध्यायमें परमात्माका जो वर्णन है वह वेद, उपनिषद्, गीता आदि ग्रंथों में पाए परमात्माके वर्णनसे कम नहीं है । वैसे ही धर्म, नीति, साधनामार्ग आदिके 'विषयमें कहे गये वचन भी अत्यंत सरल, सुंदर, और मनोवेधक हैं । इस पुस्तकमें अंकित वचन ही वचन-साहित्य नहीं है । सहस्रों वचनोंमें से कुछ सौ इस पुस्तकमें आये हैं। इस पुस्तकमें अंकित वचनोंके अतिरिक्त, वीरभाव, आर्तभाव तिरस्कार, करुणा, विनोद आदि दर्शानेवाले वचन भी कम नहीं हैं। वैसे ही मधुर-भावको व्यक्त करनेवाले वचन भी पर्याप्त हैं । इन सवका विचार करते हुए निविवाद रूपसे यह कह सकते हैं कि वचनकारों ने अपनी ही एक विशिष्ट शैलीमें अपने मनोभावों को अत्यंत सुंदरताके साथ व्यक्त किया है। वचनकारोंने अपने वचनोंमें अलंकारका भी पर्याप्त प्रयोग किया है। यह मानी हुई बात है कि अलंकार गद्यमें पद्यसे कम ही रहते हैं । एक विद्वान् साहित्यिकने, साहित्यमें कविताका स्थान दर्शाते हुए कहा है कि वनमें लता, -समाजमें वनिता, और साहित्यमें कविता एक-समान है । जैसे समाजमें वनिता "पर जो अलंकार शोभा देते हैं वे पुरुषों पर शोभा नहीं देते, वैसे ही साहित्य में कवितामें जो अलंकार शोभा देते हैं वह गद्यमें शोभा नहीं देते, इसलिये पद्यों में अलंकारोंकी जैसी अपेक्षा की जाती है वैसी वचन-गद्य में नहीं होनी चाहिए। किंतु वचनकारोंने अपनी वातको सुननेवाले तथा पढ़नेवालों के मन पर अंकित करनेकेलिए जितने और जैसे अलंकारोंकी अपेक्षा थी उतने और वैसे अलंकारोंका उपयोग किया है। जिस सीमा तक अपने वचनों
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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