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________________ वचन - साहित्यका साहित्यिक- परिचय EMERARY) J / १५: 1 उस रास्ते पर जाने वालोंका मार्ग दर्शन दिया। जिस बात से उनको आनंद मिला उस बातको उन्होंने अपने साथियों को दिया। यही उनका उद्देश्य था । वे ग्रपने वचनोंके द्वारा इसमें सफल हुए इसमें संशय नहीं । यदि ऐसा न होता तो - करीब एक हजार वर्ष तक विस्मरण-सुलभ गद्यात्मक शैलीमें लिखे हुए ये असंख्य वचन कन्नड़ भाषाभाषी लाखों लोगोंके कंठका भूषण नहीं होते । · मुंडिगे के रूपमें प्रचलित कुछ गूढात्मक वचनों को छोड़ दिया जाए तो सर्वसामान्य - वचनोंने भाषामें स्थायी रूपसे घर करके रहनेवाली लोकोक्तियोंका स्थान ले लिया है । लोकोक्तियोंके रूपमें भाषा में स्थायित्व प्राप्त करने वाले वचनोंने केवल - कन्नड़ भाषा-भाषी जनताकी ज्ञान-वृद्धि ही नहीं की है, कन्नड़ भाषाकी अभि-व्यंजना शक्ति को भी बढ़ाया है । वचन साहित्य के कारण कन्नड़ भाषा-भाषीजनताके लिए संस्कृतमें स्थित मोक्ष - शास्त्र सर्व सुलभ हुया है । मोक्ष के लिए : आवश्यक भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, ध्यान, कर्म, समर्पण आदि का रहस्य सर्वसामान्य जनताके लिए भी रहस्य नहीं रह गया । सबको इसका बौद्धिक ज्ञान हुआ । वचनोंमें ग्रानेवाले शब्द अधिकतर विशुद्ध कन्नड़ शब्द हैं, उनमें आनेवाले: श्रुति, उपनिषद्, ग्रागमादिके उद्धरणोंका अर्थ भी कन्नड़ में रहता है, तथाउनमें पुराणादिका संदर्भ भी नहीं होता, इससे वे सर्वसुलभ हो गये हैं, सर्वप्रिय हो गये हैं। सबके लिए उपयुक्त भी हो गये है। किसी विद्वान्ने कहा है "सच्चे और उच्च कोटिके साहित्य में और कुछ हो या न हो, किंतु वह पाठक की योग्यतानुसार समझमें आने योग्य होना चाहिए, सबके लिए प्रकाश देनेवाला होना चाहिए, क्योंकि साहित्य समाजके लिए दीपक होता है ।" वचनसाहित्य इस कसौटी पर खरा उतरता है । यदि किसीको कन्नड़ भाषाका सामान्य ज्ञान हो तो उसके लिए वचन साहित्य सुलभ है, साथ-साथ सामान्य - विवेक और सचाई को समझनेकी थोड़ी उत्कंठा हो तो सोने में सोहागा ही : है, और संप्रदाय की परंपराका थोड़ा-सा ज्ञान अधिकाधिक फलप्रद है, 'अधि-क़स्याधिकं फलं' न्यायसे दूधमें शहद सा है । जैसे छोटी-सी चिनगारी कूड़ेकेबड़े से बड़े ढेर को भी राख कर देती है, वैसे ये छोटे-से वचन जिज्ञासु पाठकके प्रज्ञान, संशय ग्रादिको जलाने के लिए पर्याप्त हैं । इन वचनों में मानवीय जीवनकी प्रांतरिक उलझनोंको सुलझाने की कोमलता है, किंतु केवल लौकिकः विषयोंके वर्णनमें कालहरण करनेकी मनोरंजकता नहीं है । इन वचनों में जिज्ञा-सुके अंतःकरण में ज्ञानकी ज्योति जलानेकी शक्ति है, किंतु रंजनात्मक माधुर्य वाणीविलासका लालित्य और चित्तरंजनकी रंजकता अथवा रसिकता नहीं है । यह वचन - साहित्यका उद्देश्य नहीं है । वचन साहित्यका उद्देश्य सत्यार्थियोंको सत्पथ दिखाना है । वचन साहित्यकी प्रालोचना करते समय वह अपने उद्देश्य में कहां
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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