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________________ २२४ ___वचन-साहित्य-परिचय तेरा हूं "तु जैसा रखेगा वैसा रहूंगा" ऐसी प्रार्थना करता हुआ अपने अंत:करणके भाव-पीटपर उसे बिठा करके 'अहम्"को "परम्"में डुबो देता है। तब अहम् के स्थानपर सोहम् नाद गूंजने लगता है। परमात्मासे ऐक्यका अनुभव हो जाता है। वचन--(२१३) प्रभु ! सब इंद्रियोंको तुझपर चढ़ाकरके जबतक पूजा नहीं की तब-तक ढेरों पत्र-पुष्प-फलादिसे पूजा करके क्या लाभ ? तुझे अपने अंत:करणमें - बिठाकर मनको तेरा लीलाक्षेत्र न बनाकर माला फेरकर तेरा नाम जपनेसे क्या होगा? जबतक अपनेको समर्पित नहीं किया तब तक सकल सुख-साधनोंके समर्पणसे क्या लाभ ? शरीर गुणोंसे तेरी पूजा करनेवाले सब लोग तेरा स्पर्श . न पाकर तुमसे दूर हो गये। यह जानकरके तेरी अविरल पूजा करते हुए तुझमें डूब गया है निजगुरु स्वतंत्र सिद्धलिंगेश्वरा । (२१४) अन्य सब विचारोंको भूलकरके तुम्हारे विचारों में ही डूबनेपर, तुममें प्राण स्थिर हुए। प्राणको आधार मिलजानेसे दस वायुनोंका सांचा टूट ... गया । अंगलिंगके किरणोंको निगल गया, और अंतःकरण में करतलामलककी भांति तुझे ही देख रहा हूँ। (तुझे अपनेसे) बाहर न जानकर तू ही गति यह जानते हुए तुझमें ही डूब गया कुडलसंगमदेव। (२१५) संकल्प सिद्ध होनेसे मनरूपी संकल्प रहा ही नहीं। सारे विचार तुममें डूब गए सो संकल्प जन्य संबंधोंको भूल गया। अंतःकरणमें तेरे ही विचारसे भरजानेसे अांखें तेरे अतिरिक्त और कुछ देख ही नहीं सकती हैं: कपिलसिद्धमल्लिनाथैया । (२१६) इंद्रियादि साधनोंके नष्ट होकर नवचंकके अलग होनेपर और। क्या रहा ? न स्वर्ग है न नरक । फिर रहा क्या ? गुहेश्वरलिंगमें, प्रवेशकर । सुखी होनेपर और क्या रहा ! ::: : :: टिप्पणी :- सर्वार्पण करनेवाला पत्र-पुष्पादिकी पूजासे संतुष्ट नहीं होता। वह भगवान में लीन होकर पूजा करता है। तभी वह धन्य भाव प्राप्त कर सकता है। अपनेको कृतार्थ मान सकता है। "नवचक" का अर्थ मूलाचारचक्र आदि नाड़ीचक हैं। इन नाड़ीचक्रोंके विषयमें कुछ लोगोंका मंतव्य हैं। वह छः हैं तो कुछका नौ। उन सबके छिन्न होनेपर कुंडिलिनी शक्ति संपूर्णरूपेसे जागृतः । होती है और सत्यका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। (२१७) देहरूपी मंदिर में भाव-सिंहासन स्थापित करके प्राणों के स्वामीकी पूजा करना जाननेवाले देवताको ही देव 'कहूँगा अखंडेश्वरा । (२.१.८) धनी लोग मंदिर बनवाते हैं मैं क्या करू स्वामी? मैं अकिंचनः । हूँ। मेरे पैरही खम्भे हैं । शरीरको निर । नी का स्वर्गा कलश है। .. . .. .
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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